सर्वेक्षण: बहुमत तो कृषि कानूनों के पक्ष में है

सर्वे रिपोर्ट के नतीजे तो किसान आंदोलन को लेकर कुछ और ही कह रहे हैं
बहरहाल नए कृषि कानूनों (New Farm Law) के विरोधियों का तर्क है कि इनसे आने वाले दिनों में किसानों (Farmers Protest) की जमीन पर उस कॉरपोरेट का कब्जा हो जाएगा, जिसके लिए ठेके पर किसान खेती करेंगे. लेकिन, सर्वे में शामिल करीब तीन चौथाई लोग किसान संगठनों और कृषि कानून विरोधियों के इस तर्क को खारिज करते हैं.
उमेश चतुर्वेदी
पत्रकार और लेखक

सर्वे रिपोर्ट के नतीजे तो किसान आंदोलन को लेकर कुछ और ही कह रहे हैं
न्यूज18 की रिपोर्ट के मुताबिक 53.6 प्रतिशत लोग इन कानूनों का समर्थन कर रहे हैं. (फोटो साभार- PTI)
नई दिल्ली. कृषि सुधार से संबंधित संसद द्वारा सितंबर में मंजूर तीन कृषि कानूनों पर जिस तरह विवाद खड़ा हुआ है, उससे पहली नजर में तो ऐसा ही लगता है कि देश का बहुसंख्यक किसान इन कानूनों के खिलाफ है. इन कानूनों को वापस लेने की मांग को लेकर करीब 24 दिनों से राजधानी दिल्ली को घेरे बैठे पंजाब, हरियाणा और किंचित पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान संगठन यही संदेश देने की कोशिश कर रहे हैं कि देश के ज्यादातर किसानों को ये कानून रास नहीं आए हैं. हालांकि सरकार और उसके समर्थक इस धारणा को हर संभव मंच और अवसर पर खारिज कर रहे हैं. इस बीच न्यूज18 की एक सर्वे रिपोर्ट आई है, उसके नतीजे भी कुछ ऐसे ही संकेत दे रहे हैं. पिछले हफ्ते किए गए इस देशव्यापी सर्वे का जो नतीजा है, वह सरकार और उसके समर्थकों की ही बात को सही साबित कर रहा है.

न्यूज18 की रिपोर्ट के मुताबिक 53.6 प्रतिशत लोग इन कानूनों का समर्थन कर रहे हैं. जबकि विरोध में महज 30.6 फीसद लोग ही हैं. सर्वे में शामिल 15.8 फीसद लोग इन कानूनों को लेकर अभी तक अपनी कोई राय नहीं बना पाए हैं. अगर इस सर्वे रिपोर्ट को ही मानें तो इसमें शामिल आधे से ज्यादा किसानों को कृषि सुधार की दिशा में उठाए गए इन कानूनों से काफी उम्मीद है. सर्वे में शामिल लोगों की राय है कि इनसे किसानों की जिंदगी में सकारात्मक बदलाव आ सकता है, जबकि एक तिहाई से भी कम किसान ऐसे हैं, जिन्हें ये कानून माकूल नहीं लग रहे.

”किसानों के नाम पर विरोध की राजनीति ”

दिल्ली घेराव के करीब बीस दिनों बाद से ही केंद्र सरकार किसानों के आंदोलन को लेकर भड़काऊ बात कहने से परहेज कर रही है. हालांकि भारतीय जनता पार्टी अब भी मानती है कि यह आंदोलन राजनीति से प्रेरित है. केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह खुलेआम कह चुके हैं कि जिन्हें जनता ने चुनावों में नकार दिया, वे ही लोग किसानों के नाम पर विरोध की राजनीति कर रहे हैं. जाहिर है कि उनका इशारा कांग्रेस और वामपंथी दलों की ओर है.

दिलचस्प है कि सिर्फ राजनीतिक दल ही नहीं, बल्कि किसानों का बड़ा धड़ा भी मानता है कि यह आंदोलन राजनीति से प्रेरित है. न्यूज18 के सर्वे में शामिल करीब 48.71 प्रतिशत लोगों का कहना है कि नए कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों का मौजूदा आंदोलन के पीछे राजनीति का हाथ है, जबकि 32.59 फीसद लोग इसे राजनीति प्रेरित आंदोलन नहीं मानते. इसी तरह 18.70 प्रतिशत लोगों की इस बारे में राय स्पष्ट नहीं हो पाई है कि इस आंदोलन के पीछे निहित राजनीतिक तत्व हैं या नहीं.

“परंपरा और सुधार… चलती रही बहस”

भारत में उदारीकरण की शुरुआत ही नहीं, बल्कि आजादी के बाद से ही इस बात को लेकर बहस चलती रही है कि खेती-किसानी में सुधार कार्यक्रम लागू किए जाने चाहिए या फिर उसे पारंपरिक तौर पर ही आगे बढ़ते देना चाहिए. बहरहाल नए कृषि कानूनों के विरोधियों का तर्क है कि इनसे आने वाले दिनों में किसानों की जमीन पर उस कॉरपोरेट का कब्जा हो जाएगा, जिसके लिए ठेके पर किसान खेती करेंगे. मौजूदा कृषि कानूनों के विरोध का यह भी एक बड़ा आधार है, लेकिन इस सर्वे में शामिल करीब तीन चौथाई लोग किसान संगठनों और कृषि कानून विरोधियों के इस तर्क को खारिज करते हैं.

इस सर्वे में शामिल 73.05 प्रतिशत लोग खुले तौर पर भारतीय खेती-किसानी में सुधार और आधुनिकीकरण का समर्थन कर रहे हैं. कृषि कानून विरोधियों का तर्क है कि मौजूदा कानूनों से न्यूनतम समर्थन मूल्य व्यवस्था तो खत्म होगी ही, मंडिया भी धराशायी हो जाएंगी, लेकिन इस सर्वे में शामिल करीब 70 फीसद लोग कानून विरोधियों की इस राय से इत्तेफाक नहीं रखते. सर्वे में शामिल करीब 69.65 फीसद लोगों ने ना सिर्फ सरकार के इस फैसले का स्वागत किया है, बल्कि उनका मानना है कि नई व्यवस्था में किसानों को अपनी उपज मंडियों के बाहर बेचने का विकल्प होगा और इससे उन्हें फायदा ही होगा.

सरकार का दावा- किसानों को होगा फायदा

आंदोलनकारी किसानों को समझाने के क्रम में मोदी सरकार भी बार-बार दावा कर रही है कि नए कृषि कानूनों से किसानों को ना सिर्फ फायदा होगा, बल्कि उनकी उपज की पहले की तुलना में बेहतर कीमत मिलेगी. दिलचस्प यह है कि इस सर्वे के नतीजे भी सरकार की ही बात का समर्थन करते दिख रहे हैं. सर्वे में शामिल 60.90 प्रतिशत लोगों का स्पष्ट कहना है कि नए कृषि सुधार कानूनों से किसानों को उनकी उपज की बेहतर दाम मिलेगा.

बढ़ते आंदोलन के चलते सरकार ने किसानों का भ्रम दूर करने की दिशा में कुछ पेशकश भी की है. सरकार लिखित गारंटी देने को तैयार है कि नए कानूनों के लागू होने के बाद ना तो मंडियां बंद होंगी और ना ही किसानों को कोई घाटा होगा. सरकार इस बात की भी लिखित गारंटी देने को तैयार है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी की व्यवस्था पहले की तरह जारी रहेगी. हालांकि आंदोलनकारी किसान और उनके अगुआ संगठन इसे ना तो स्वीकार कर रहे हैं और ना ही सरकार को भरोसेमंद बता रहे हैं. हालांकि सर्वे में शामिल 53.94 प्रतिशत लोगों को सरकार की यह पेशकश पसंद आई है और वे इसका जोरदार समर्थन भी कर रहे हैं. सरकार चाहती है कि जल्द से जल्द आंदोलन खत्म हो और किसान अपने खेतों की ओर लौटें.

कृषि कानून के खिलाफ जिद पर अड़े किसान

दिल्ली की सिंघु सीमा पर हालात सामान्य बनाने के लिए सरकार किसानों से बातचीत पर जोर दे रही है. हालांकि कृषि कानून विरोधी किसान संगठन अब भी आंदोलन के ही हक़ में हैं. किसान संगठनों ने तो कानून वापस ना होने तक अपना आंदोलन तेज करने का ऐलान तक कर दिया है, लेकिन आम लोग इसके खिलाफ हैं. इस सर्वे में शामिल 56.59 प्रतिशत लोगों का मानना है कि यह आंदोलन जितनी जल्दी हो सके, खत्म किया जाना चाहिए. वहीं सर्वे में शामिल आधे से भी ज्यादा यानी 52.69 फीसद लोगों की राय है कि आंदोलनकारी किसानों को नए कानूनों को रद्द करने की जिद्द छोड़कर सरकार से समझौते की दिशा में आगे बढ़ना चाहिए.
न्यूज18 का यह सर्वे स्पष्ट करता है कि आंदोलनकारी किसान संगठनों की राय से देश की बहुसंख्य जनता सहमत नहीं है, बल्कि वह सरकार के कदमों को ही जायज ठहरा रही है. इस सर्वे के नतीजे जरूरी नहीं कि किसान संगठन स्वीकार ही करें, लेकिन इतना जरूर कहा जा सकता है कि आम लोगों की राय के खिलाफ अगर वे आंदोलन लंबे समय तक जारी रखेंगे तो जन सहानुभूति खोने का खतरा बढ़ेगा. अब सारा दारोम
OPINION: दिल्ली की सीमाओं पर अड़े किसानों को जनमत का सम्मान करना चाहिए
सर्वे में शामिल 73.05 प्रतिशत लोग भारत में कृषि सुधार और आधुनिकीकरण के पक्ष में हैं. उनका मानना है कि नए कृषि क़ानूनों से किसानों का फ़ायदा होगा.
रवि पाराशर

OPINION: दिल्ली की सीमाओं पर अड़े किसानों को जनमत का सम्मान करना चाहिए
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मोदी सरकार ने आंदोलन कर रहे किसानों से बातचीत की मेज़ पर आने की फिर से ग़ुज़ारिश की है, जबकि दिल्ली की सीमाओं पर जुटे किसानों के नेता कृषि सुधार क़ानूनों को रद्द करने की मांग से पीछे हटने को तैयार नहीं हैं. ऐसे में एक सवाल ज़ेहन में बार-बार उठता है कि किसानों के ज़िद्दी रुवैया अख़्तियार करने से आख़िर क्या फ़ायदा होगा? दूसरा सवाल यह है कि क़ानून रद्द करने की मांग पर किसान संगठन क्या विपक्ष के सियासी एजेंडे को पूरा करने के लिए अड़ गए हैं? शुरुआत में किसान बातचीत के लिए जा रहे थे और साफ़ नज़र आ रहा था कि सरकार अगर क़ानूनों में कुछ संशोधन कर दे, तो वे घरों को लौट जाएंगे. लेकिन बाद में उन्होंने रुख़ बदल लिया.

अब न्यूज़ 18 नेटवर्क के सर्वे के नतीजे सामने आने के बाद साफ़ हो गया है कि देश के ज़्यादातर लोग विपक्षी पार्टियों और किसान संगठनों के गठजोड़ को समझ रहे हैं. सर्वे में शामिल 73.05 प्रतिशत लोग भारत में कृषि सुधार और आधुनिकीकरण के पक्ष में हैं. उनका मानना है कि नए कृषि क़ानूनों से किसानों का फ़ायदा होगा. ग़ौर करने वाली बात यह भी है कि सर्वे में आधे से ज़्यादा लोगों यानी 54 प्रतिशत की राय है कि दिल्ली की सीमाओं पर चल रहा कथित आंदोलन की जड़ें राजनीति से जुड़ी हैं. साफ़ है कि राजनीति में मोदी काल आने के बाद जिस तरह से विपक्ष हाशिये पर सिमट गया है, उससे घबरा कर कांग्रेस समेत सभी विपक्षी पार्टियां छोटे से छोटे मौक़े को हथिया कर मोदी का विरोध करने की नीति पर उतर आई हैं.
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आपको यह भी बता दें कि सर्वे में 22 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेश के 2412 लोगों ने हिस्सा लिया.
सर्वे के नतीजों से पूरी तरह सहमत हुआ जा सकता है. कथित किसान आंदोलन के दौरान जिस तरह दशकों पहले ख़त्म हो चुका ख़ालिस्तान आंदोलन नए सिरे से चर्चा में आ गया है और देश विरोधी विचारों वाले कई आरोपितों के पक्ष में माहौल बनाने के प्रयास किए जा रहे हैं, उससे साफ़ है कि न केवल बड़ी विपक्षी पार्टियां, बल्कि विघटनकारी ताक़तें भी किसानों की भीड़ का फ़ायदा उठाना चाहती हैं. अगर वे कामयाब होती हैं, तो किसानों की यह ज़िद देश के लिए अच्छी साबित नहीं होगी. यह बात किसानों के जितनी जल्दी समझ में आ जाए, उतना ही अच्छा होगा.

अब जबकि देश में किसान आंदोलन जल्द ही ख़त्म होने का जनमत सामने आने लगा है, तब किसान संगठनों को देश के बहुसंख्य नागरिकों की बात मान कर अपना आंदोलन ख़त्म कर देना चाहिए. सरकार से बातचीत के लिए कमेटी बनाई जा सकती है. सैद्धांतिक आधार पर यह कमेटी स्थाई महत्व की हो. जब भी किसानों को किसी मसले पर सरकार से बातचीत की ज़रूरत हो, यह समिति बात करे और समाधान तलाशे. बार-बार किसानों को घरबार छोड़ कर इस तरह सड़कों पर बसेरा न करना पड़े. न्यूज़ 18 नेटवर्क के सर्वे में 56.59 प्रतिशत लोग मानते हैं कि किसान आंदोलन तुरंत ख़त्म किया जाना चाहिए.53.6 प्रतिशत लोग मानते हैं कि केंद्रीय कृषि सुधार क़ानून सही हैं. जबकि 30.6 प्रतिशत लोग क़ानूनों को सही नहीं मानते. 15.8 प्रतिशत लोग ऐसे हैं, जिनकी कोई राय कृषि क़ानूनों के बारे में नहीं है. 52.69 प्रतिशत लोग मानते हैं कि किसानों को क़ानून रद्द करने पर अड़ना नहीं चाहिए, बल्कि सरकार के साथ समझौता करना चाहिए. 60.90 फ़ीसदी किसानों का मानना है कि नए कृषि सुधार क़ानून किसानों की आमदनी बढ़ाने में मददगार साबित होंगे. 69.65 प्रतिशत लोग यह भी मानते हैं कि नए क़ानूनों से किसानों को मंडी समितियों के अलावा नए बाज़ार का विकल्प उपलब्ध होगा. 53.94 प्रतिशत लोगों को सरकार की एमएसपी व्यवस्था जारी रहने की बात पर भरोसा है.

न्यूज़ 18 नेटवर्क ने किसान आंदोलन पर देशव्यापी सर्वे कर अपनी ज़िम्मेदारी का ही परिचय दिया है. इस तरह के सियासी वजहों से उलझे मसलों पर मीडिया समूहों को देश के लोगों से लगातार बात कर उनकी राय सामने रखनी चाहिए. इतनी सर्दी में सड़कों पर बैठे किसान ही परेशान नहीं हो रहे हैं, दिल्ली-एनसीआर के करोड़ों लोग भी ख़ासे परेशान हो रहे हैं. सर्दी और बीमारियों की वजह से कई किसानों की मृत्यु भी आंदोलन के दौरान हो चुकी है. अब यह मान लेने में कोई दिक्क़त नहीं होनी चाहिए हर समस्या का समाधान बातचीत के माध्यम से ही हो सकता है. किसी भी आंदोलनकारी समूह को देश के जनमत का सम्मान करना ही चाहिए. (ये लेखक के निजी विचार हैं.)
ब्लॉगर के बारे में
रवि पाराशर

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