मत: सनातन है तभी तो खतरे में है, लुटेरे असुर सदैव रहे हैं हावी

सनातन धर्म क्या है? एक सन्त इसी धर्म के नियमों के अनुसार सन्त बन कर उसका चोला डाले हैं पर सदा सनातन धर्म की संस्थाओं का व्यंग्य-विरोध करते रहते हैं। उनका कहना है कि यह सनातन है तो इस पर खतरा कैसे है? सदा अच्छी चीजों पर ही खतरा रहता है-घर की सफाई बार-बार करते हैं पुनः गन्दा हो जाता है। देव मात्र ३३ हैं, असुर ९९, प्रायः असुर जीत जाते हैं पर उनका मार्ग श्रेष्ठ नहीं है। वैवस्वत यम भारत का पश्चिम सीमा (अमरावती से ९० अंश पश्चिम संयमनी = यमन, सना) के राजा थे। उन्होंने कठोपनिषद् में नचिकेता से दोनों का विवेचन किया है-श्रेय (स्थायी या सनातन लाभ) तथा प्रेय (तात्कालिक लाभ या उसका लोभ)। श्रेय मार्ग पर चलनेवाले सनातनी हैं, उनको सम्मान के लिये श्री कहते हैं। जो हमें प्रेय दे सके वह पीर है या दक्षिण भारत में पेरिया। अन्य अर्थ हैं-

(१) सनातन पुरुष की उपासना-सनातनस्त्वं पुरुषो मतो मे (गीता ११/१८) या भूत-भविष्य-वर्त्तमान में सर्वव्यापी-पुरुष एवेदं सर्वं यद् भूतं यच्च भाव्यं (पुरुष सूक्त)। या उसके शब्द रूप वेद की उपासना -भूतं भव्यं भविष्यं च सर्वं वेदात् प्रसिद्ध्यति। (मनुस्मृति १२/९७)।
(२) सनातन या अमृत तत्त्व की उपासना-मृत्योर्मा अमृतं गमय आदि। जो निर्मित होता है वह बुलबुला जैसा क्षणभङ्गुर है, वह मूल स्रोत से मुक्त होता है अतः उसे मुच्यु या परोक्ष में मृत्यु कहा है। उसके बदले मूल स्रोत की ही निष्ठा। वेद में इसे केवल सनात् भी कहा है-सनादेव शीर्यते सनाभिः। (ऋक् १/१६४/१३, अथर्व ९/९/११) अनापिरिन्द्र जनुषा सनादसि (ऋक् ८/२१/१३, अथर्व २०/११४/१, साम १/३९९, २/७३९), सनाद् राजभ्यो जुह्वा जुहोमि (ऋक् २/२७/१, वाज यजु ३४/५४, काण्वसं ११/१२, निरुक्त १२/३६)। मूल तत्त्व से जो बुद्-बुद् निकलता है उसे द्रप्सः (drops) या स्कन्द (निकलना, गिरना) भी कहा है। आकाशगंगा, तारे, ग्रह-सभी द्रप्सः हैं।
(३) स्वयं यज्ञ द्वारा उत्पादन कर उपभोग करना देवों का कार्य है। इसके विपरीत दूसरों का अपहरण करना असुर वृत्ति है-यज्ञेनयज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्। ते ह नाकः महिमानः सचन्तः यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः। यज्ञ द्वारा इच्छित वस्तु का उत्पादन होता है-अनेन प्रसविष्यध्वं एष वोऽस्तु इष्टकामधुक् (गीता ३/१०)। लूटा माल खत्म हो जाता है पर यज्ञ का चक्र सदा चलता रहता है-एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः (गीता ३/१६)। अतः यज्ञ को चलाते रहना सनातन धर्म है। केवल इसका बचा भाग लेना चाहिये जिससे यह चक्र बन्द नहीं हो-यज्ञशिष्टामृत भुजः (गीता ४/३१) यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः (गीता ३/१३) सनातन है। असुरों द्वारा इसी लूट प्रवृत्ति के कारण सनातन धर्म पर सदा खतरा रहता है।
(४) अदिति उपासना-पृथ्वी कक्षावृत्त का २७ नक्षत्रों में विभाजन दिति है पर उस चक्र में निरन्तन गति अदिति है। जैसे सम्वत्सर चक्र सदा चलता रहता है, जिस विन्दु पर एक सम्वत्सर समाप्त होता है वहीं से नया आरम्भ होता है-यह कालचक्र के अनुसार अर्थ हैअदितिर्जातम् अदितिर्जनित्वम् (ऋग्वेद १/८९/१०)प्राचीन नियम था अदिति का नक्षत्र पुनर्वसु आने पर रथयात्रा होगी। देवों का वर्ष इसी से आरम्भ होता था। पुनर्वसु नक्षत्र में सूर्य आने से वर्ष (अदिति) का अन्त भी होता है और नये वर्ष (अदिति) का आरम्भ भी, अतः कहा गया है-अदितिर्जातम्, अदितिर्जनित्वम्। सूर्य पुनर्वसु नक्षत्र में ५ से १८ जुलाई तक रहता है, इस अवधि में रथयात्रा या बाहुड़ा निश्चय होगा। जो सनातन तत्त्व अदिति की उपासना करता है वह आदित्य या सनातनी है। दिति का अर्थ काटना है। उनके उपासक दैत्य विश्व को दो भागों में काट देते हैं-उनका भगवान् ठीक है बाकी गलत हैं अपने भगवान मत में धर्म परिवर्तन नहीं तो हत्या करना। उनके प्रचारक या पैगम्बर के पहले सभी गलत था। सनातन मत वाले ज्ञान या सभ्यता कि निरन्तरता को समझते हैं।

✍🏻अरुण उपाध्याय

#हिन्दू_कौन

स्मार्तों के लक्षण इस प्रकार हैं –

अनुष्ठानं कुले येषां स्मृत्यौचित्यपोषकम् ।

क्रियते खलु यथाशक्तिस्ते स्मार्ता विदुर्बुधाः ।।

अर्थात् जिनके कुल में धार्मिक अनुष्ठान यथाशक्ति स्मृतियों के औचित्य को पोषित करता है अर्थात् इस प्रकार किया जाता है ताकि सभी वैदिक स्मृतियों में सामञ्जस्य बैठ जाये, उनको विद्वान् लोग स्मार्त कहते हैं ।

स्मृतेरनुगतो यो च मीमांसादिपरायणः ।

वेदाविरोधिन्याः पवते स स्मार्त्तो जगत्त्रयम् ।।

जो वेदों से अविरोध रखने वाली स्मृति का अनुगामी , पूर्वमीमांसा, न्याय, व्याकरण आदि शास्त्रों के परायण हो, वह स्मार्त तीनों लोकों को पवित्र करता है।

अद्वैते हि मतिर्येषां गतिश्चाद्वयब्रह्मणि ।

रतिश्चाखिलवेदान्ते ते वै स्मार्त्तधुरन्धराः ।।

जिनकी अद्वैत में मति अर्थात् मननशीलता रहती हो , अद्वैत ब्रह्म ही जिनकी गति हो, समस्त वेदान्त (उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र, गीता आदि) में जिनकी अनुरक्ति हो , वे निश्चय ही स्मार्तों की धुरी को धारण करने वाले हैं ।

गणनाथदेविशिवविष्णुखगेशदेवान्नित्यं सुपूज्यनिरतस्समानभावैः ।

गोविप्रसन्तसुरशास्त्रभक्तिमतानुयायी पाखण्डखण्डनपरो खलु वै स्मार्त्तः ।।

गणेश, देवी दुर्गा, शिव, विष्णु तथा आकाश में गमन करने वाले सूर्य – इन देवताओं को जो प्रतिदिन सबके प्रति समान भावनाओं से ओतप्रोत होकर अच्छी तरह से (उसके लिये विहित शास्त्रीय विधा से) पूजन करने में लगे रहता है; गौमाता, ब्राह्मण, सन्त, देवता तथा शास्त्रों के प्रति भक्ति रखने वाला तथा वेदविरोधी मतों के खण्डन में दक्ष, ऐसा व्यक्ति निश्चय ही स्मार्त्त है

समस्त सच्चे सनातन हिन्दू धर्मावलम्बी स्मार्त ही हैं ,स्मृतियों का अनुगामी ही वास्तविक हिन्दू है

✍🏻रामांश भरत

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