बलिदानी भगतसिंह का राजनीतिक शोषण क्यों?

शहीद भगत सिंह क्यों आदर्श है?

‘मैं नास्तिक क्यों हूँ?’ शहीद भगतसिंह की यह छोटी सी पुस्तक वामपंथी, साम्यवादी लाबी आजकल नौजवानों में प्रचारित कर रही है, जिसका उद्देश्य उन्हें भगत सिंह के जैसा महान बनाना नहीं अपितु उनमें नास्तिकता प्रोत्साहन करना है। कुछ लोग इसे कन्धा भगत सिंह का और निशाना कोई और भी कह सकते हैं।

मेरा एक प्रश्न उनसे यह है कि क्या भगत सिंह इसलिए हमारे आदर्श होने चाहिए कि वे नास्तिक थे, अथवा इसलिए कि वे एक प्रखर देशभक्त और अपने सिद्धान्तों से किसी भी कीमत पर समझौता न करने वाले बलिदानी थे? सभी कहेंगे कि इसलिए कि वे देशभक्त थे। भगतसिंह के जो प्रत्यक्ष योगदान है उसके कारण भारतीय स्वतंत्रता के संघर्ष में उनका कद इतना उच्च है कि उन पर अन्य कोई संदिग्ध विचारधारा थोपना कतई आवश्यक नहीं है। इस प्रकार के छद्म प्रोपगंडा से भावुक एवं अपरिपक्व नौजवानों को भगतसिंह के समग्र व्यक्तित्व से अनभिज्ञ रखकर अपने राजनीतिक उद्देश्य तो पूरे किये जा सकते हैं, भगतसिंह के आदर्शों का समाज नहीं बनाया जा सकता। किसी भी क्रांतिकारी की देशभक्ति के अलावा उनकी अध्यात्मिक विचारधारा अगर हमारे लिए आदर्श है तब तो भगत सिंह के अग्रज महान् कवि एवं लेखक, भगत सिंह जैसे अनेक युवाओं के मार्गद्रष्टा, जिनके जीवन में क्रांति का सूत्रपात स्वामी दयानंद रचित अमर ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश पढने से हुआ था, कट्टर आर्यसमाजी, पंडित राम प्रसाद बिस्मिल जिनका सम्पूर्ण जीवन ब्रह्मचर्य पालन से होने वाले लाभ का साक्षात् प्रमाण था, क्यों हमारे लिए आदर्श और वरण करने योग्य नहीं हो सकते?
क्रान्तिकारी सुखदेव थापर वेदों से अत्यंत प्रभावित एवं आस्तिक थे एवं संयम विज्ञान में उनकी आस्था थी। स्वयं भगत सिंह ने अपने पत्रों में उनकी इस भावना का वर्णन किया है। हमारे लिए आदर्श क्यों नहीं हो सकते?
‘आर्यसमाज मेरी माता के समान है और वैदिक धर्म मेरे लिए पिता तुल्य है। ऐसा उद्घोष करने वाले लाला लाजपतराय जिन्होंने पंजाब नेशनल बैंक स्थापित करने, जमीनी स्तर पर किसान आन्दोलन का नेतृत्व करने से लेकर उच्च बौद्धिक वर्ग तक में प्रखरता के साथ देशभक्ति की अलख जगाई और साइमन कमीशन का विरोध करते हुए अपने प्राण न्योछावर कर दिए। वे क्यों हमारे लिए वरणीय नहीं हो सकते? क्या इसलिए कि वे आस्तिक थे? वस्तुतः: देशभक्त लोगों के प्रति श्रद्धा और सम्मान रखने के लिए यह एक पर्याप्त आधार है कि वे सच्चे देशभक्त थे और उन्होंने देश की भलाई को अपने व्यक्तिगत स्वार्थों और सपनों सहित अपने जीवन का बलिदान कर दिया, इससे उनके सम्मान में कोई कमी या वृद्धि नहीं होती कि उनकी आध्यात्मिक विचारधारा क्या थी।

पंडित रामप्रसाद बिस्मिल के बलिदान का सम्मान करने के साथ अशफाक के बलिदान का केवल इस आधार पर अवमूल्यन करना कि वे इस्लाम से सम्बंधित थे, केवल मूर्खता ही कही जाएगी।
ऐसे हजारों क्रांतिकारियों का विवरण दिया जा सकता है जिन्होंने न केवल मातृभूमि की सेवा में अपने प्राण न्योछावर किये थे अपितु मान्यता से वे सब दृढ़ रूप से आस्तिक भी थे। क्या उनकी बलिदान और भगत सिंह के बलिदान में कुछ अंतर हैं? नहीं। फिर यह अन्याय नहीं तो और क्या है?
अब यह भी विचार कर लेना चाहिए कि भगत सिंह की नास्तिकता क्या वाकई में नास्तिकता है? भगत सिंह बलिदान के समय 23 वर्ष के युवक ही थे। उस काल में 1920 के दशक में भारत के ऊपर दो प्रकार की विपत्तियाँ थीं। 1921 में परवान चढ़े खिलाफत को कमाल अतातुर्क पाशा द्वारा समाप्त किये जाने पर कांग्रेस एवं मुस्लिम संगठनों की हिन्दू-मुस्लिम एकता ताश के पत्तों के समान उड़ गई और सम्पूर्ण भारत में दंगों का जोर आरंभ हो गया। हिन्दू – मुस्लिम के इस संघर्ष को भगत सिंह ने आज़ादी की लड़ाई में सबसे बड़ी अड़चन के रूप में महसूस किया, जबकि इन दंगों के पीछे अंग्रेजों की फूट डालो और राज करो की नीति थी। इस विचार मंथन का परिणाम यह निकला कि भगत सिंह को “धर्म” नामक शब्द से घृणा हो गई। उन्होंने सोचा कि दंगों का मुख्य कारण धर्म है। उनकी इस मान्यता को दिशा देने में मार्क्सवादी साहित्य का भी योगदान था, जिसका उस काल में वे अध्ययन कर रहे थे। दरअसल धर्म दंगों का कारण ही नहीं था, दंगों का कारण मत-मतान्तर की संकीर्ण सोच थी। धर्म पुरुषार्थ( श्रेष्ठ कार्य) करने का नाम है, जो सार्वभौमिक एवं सार्वकालिक है। जबकि मत या मज़हब एक सीमित विचारधारा को मानना हैं, जो न केवल अल्पकालिक हैं अपितु पूर्वाग्रह युक्त भी हैं। उसमें उसके प्रवर्तक का सन्देश अंतिम सत्य होता है। मार्क्सवादी साहित्य की सबसे बड़ी कमजोरी उसका धर्म और मज़हब शब्द में अंतर न कर पाना है।
उस काल में अंग्रेजों की विनाशकारी नीतियों के कारण भारत देश में गरीबी अपनी चरम सीमा पर थी और अकाल, बाढ़, भूकंप, प्लेग आदि के प्रकोप के समय उचित व्यवस्था न कर पाने के कारण थोड़ी सी समस्या भी विकराल रूप धारण कर लेती थी। ऐसे में चारों ओर गरीबी, भुखमरी, बीमारियाँ आदि देखकर एक देशभक्त युवा के निर्मल ह्रदय का व्यथित हो जाना स्वाभाविक है। परन्तु इस प्रकोप का श्रेय अंग्रेजी राज्य, आपसी फूट, शिक्षा एवं रोजगार का अभाव, अन्धविश्वास आदि को न देकर ईश्वर को देना कठिन विषय में अंतिम परिणाम तक पहुँचने से पहले का सामान्यीकरण है। दुर्भाग्य से भगत सिंह को केवल 23 वर्ष की आयु में देश पर अपने प्राण न्योछावर करने पड़े, वरना कुछ और काल में विचारों में प्रगति होने पर उनका ऐसा मानना कि संसार में दुखों का होना इस बात को सिद्ध करता है कि ईश्वर नाम की कोई सत्ता नहीं हैं, वे स्वयं ही अस्वीकृत कर देते।

संसार में दुःख का कारण ईश्वर नहीं अपितु मनुष्य स्वयं हैं। ईश्वर ने तो मनुष्य के निर्माण के साथ ही उसे वेद उपदेश में यह बता दिया कि उसे क्या करना है और क्या नहीं करना है? अर्थात् मनुष्य को सत्य-असत्य का बोध करवा दिया था। अब यह मनुष्य का कर्तव्य है कि वो सत्य मार्ग का वरण करे और असत्य मार्ग का त्याग करे। पर यदि मनुष्य अपनी अज्ञानता से असत्य मार्ग का वरण करता है तो आध्यात्मिक, आधिभौतिक एवं आधिदैविक तीनों प्रकार के दुखों का भागी बनता है। अपने सामर्थ्य के अनुसार कर्म करने में मनुष्य स्वतंत्र है- यह निश्चित सिद्धांत है मगर उसके कर्मों का यथायोग्य फल मिलना भी उसी प्रकार से निश्चित सिद्धांत है। जिस प्रकार से एक छात्र परीक्षा में अत्यंत परिश्रम करता है उसका फल अच्छे अंकों से पास होना निश्चित है, उसी प्रकार से दूसरा छात्र परिश्रम न करने के कारण फेल होता हैं तो उसका दोष ईश्वर का हुआ अथवा उसका हुआ? ऐसी व्यवस्था संसार के किस कर्म को करने में नहीं हैं? सकल कर्मों में हैं और यही ईश्वर की कर्मफल व्यवस्था है। फिर किसी भी प्रकार के दुःख का श्रेय ईश्वर को देना और उसके पीछे ईश्वर की सत्ता को नकारना निश्चित रूप से गलत फैसला है।

भगत सिंह की नास्तिकता वह नास्तिकता नहीं है जिसे आज के वामपंथी गाते हैं। यह एक 23 वर्ष के जोशीले, देशभक्त नौजवान युवक की क्षणिक प्रतिक्रिया मात्र है, व्यवस्था के प्रति आक्रोश है। भगतसिंह की जीवन शैली, उनकी पारिवारिक और शैक्षणिक पृष्ठभूमि और सबसे बढकर उनके जीवन-शैली से सिद्ध होता है जो किसी भी आस्तिक की आस्तिकता में कम नहीं थी। वे परोपकार रूपी धर्म से कभी अलग नहीं हुए, चाहे उन्हें इसके लिए कितनी भी हानि उठानी पड़ी। महर्षि दयानन्द ने इस परोपकार रूपी ईश्वराज्ञा का पालन करना ही धर्म माना है और साथ ही यह भी कहा है कि इस मनुष्य रूपी धर्म से प्राणों का संकट आ जाने पर भी पृथक न होवे। भगतसिंह का पूरा जीवन इसी धर्म के पालन का ज्वलंत उदाहरण है। इसलिए उनकी आस्तिकता का स्तर किसी भी तरह से कम नहीं आंका जा सकता।

मेरा इस विषय को यहाँ उठाने का मंतव्य यह स्पष्ट करना है कि भारत माँ के चरणों में आहुति देने वाला हर क्रांतिकारी हमारे लिए महान और आदर्श है। उनकी वीरता और देश सेवा हमारे लिए वरणीय है।

भगत सिंह की महानता को नास्तिकता के तराजू में तोलना साम्यवादी लेखकों का शहीद भगत सिंह के साथ अन्याय  है। वैसे साम्यवादी लेखकों की दोगली मानसिकता के दर्शन हमें तब भी होते हैं जब वे भगत सिंह के गोरक्षा के लिए हुए कुका आंदोलन एवं वंदे मातरम के आज़ादी के उद्घोष के समर्थन में लिखे हुए साहित्य की अनदेखी इसलिए करते हैं क्यूंकि यह उनकी पार्टी के एजेंडे के विरुद्ध जाता हैं। प्रबुद्ध पाठक स्वयं इस आशय को समझ सकते हैं।

भगत सिंह के क्रांतिकारी विचारों के प्रेरणास्रोत्- सरदार अर्जुन सिंह

डॉक्टर विवेक आर्य

इस लेख को पड़ने वाले ज्यादातर वे पाठक हैं जिन्होंने आजाद भारत में जन्म लिया.यह हमारा सौभाग्य हैं की आज हम जिस देश में जन्मे हैं उसे आज कोई गुलाम भारत नहीं कहता, उपनिवेश नहीं कहता बल्कि संसार का एक मजबूत स्वतंत्र राष्ट्र के नाम से हमें जाना जाता हैं. इस महान भारत देश को आजाद करवाने में हजारों क्रांतिकारियों ने अपने प्राणों की आहुति आज़ादी के पवित्र यज्ञ में डाली तब कहीं जाकर हम आजाद हुए. भगत सिंह का नाम भारत देश की आज़ादी के आन्दोलन में एक विशेष महत्व रखता हैं. प्रथम तो भगत सिंह नौजवानों के लिए जिन्हें अंग्रेजों से भीख में आज़ादी मांगने में कोई रूची नहीं थी ,के लिए प्रेरणास्रोत्र बने। दूसरे १८५७ के प्रथम स्वतंत्रता आन्दोलन के असफल हो जाने के बाद अंग्रेजी सरकार ने बड़ी निर्दयता से आज़ादी के दीवानों पर प्रहार किया था, उनका उद्देश्य था कि भारत देश की प्रजा के मन में अंग्रेज जाति की श्रेष्ठता और अपराजय होने का भय बैठा देना जिससे वे दोबारा आज़ादी प्राप्त करने का सशस्त्र प्रयास न करे। इस भय को मिटने में भी भगत सिंह का बलिदान सदा याद रखा जाएगा. किसी भी व्यक्ति को महान बनने को महान कर्म तप करना पड़ता हैं और उस तप की प्रेरणा उसके विचार होते हैं. किसी भी व्यक्ति के विचार उसे ऊपर उठा भी सकते हैं उसे नीचे गिरा भी सकते हैं.भगत सिंह के जीवन में उन्हें कई महान आत्माओं ने  स्वामी दयानंद, स्वामी श्रद्धानन्द,लाला लाजपतराय, करतार सिंह सराभा, भाई परमानन्द , जयदेव विद्यालंकार, सरदार अर्जुन सिंह, सरदार किशन सिंह आदि ने प्रेरित किया जो उन्हें बालपन के संस्कारों के रूप में दूध की घुट्टी में मिले.

सरदार अर्जुन सिंह भगत सिंह के दादा थे और स्वामी दयानंद के उपदेश सुनने के बाद वैदिक विचारधारा से प्रभावित हुए थे.सरदार अर्जुन सिंह उन महान व्यक्तियों में से थे जिन्हें न केवल स्वामी दयानंद के उपदेश सुनने का साक्षात् अवसर मिला अपितु वे आगे चलकर स्वामी जी की वैचारिक क्रांति के क्रियात्मक रूप से भागीदार भी बने. स्वामी दयानंद के हाथों से उन्हें यज्ञोपवीत प्राप्त हुआ और उन्होंने आजीवन वैदिक आदर्शों का पालन करने का व्रत लिया. उन्होंने तत्काल मांस खाना छोड़ दिया और शराब को फिर जीवन भर मुंह नहीं लगाया. अब नित्य हवन उनका साथी और वैदिक संध्या उनके प्रहरी बन गए. समाज में फैले अन्धविश्वास जैसे मृतक श्राद्ध, पाखंड आदि के खिलाफ उन्होंने न केवल प्रचार किया अपितु अनेक शास्त्रार्थ भी किये.

१८९७ में अज्ञानी सिखों में अलगाववाद की एक लहर चल पड़ी. काहन सिंह के नाम से एक सिख लेखक ने “हम हिन्दू नहीं” के नाम से पुस्तक लिखकर सिख पंथ को हिन्दू समाज से अलग दिखने का प्रयास किया तो सरदार अर्जुन सिंह ने “हमारे गुरु वेदों के पैरो (अनुयायी) थे” शीर्षक से उत्तर लिखा था. इस पुस्तक में उन्होंने गुरु ग्रन्थ साहिब के कथन प्रस्तुत किये जो वेदों की शिक्षाओं से मेल खाते थे और इससे यह सिद्ध किया कि गुरु ग्रन्थ साहिब की शिक्षाएँ वेदों पर आधारित हैं.

सरदार अर्जुन सिंह का धार्मिक दृष्टिकौन

सरदार अर्जुन ने अपने ग्राम बंगा जिला लायलपुर (पाकिस्तान) में गुरूद्वारे को बनाने में तो सहयोग किया। वे गुरुद्वारा में तो जाते थे पर कभी गुरु ग्रन्थ साहिब के आगे माथा नहीं टेकते थे. वे कहते थे कि गुरु साहिबान की शिक्षा पर चलना ही सही हैं, वे कहते थे कि मूर्ति पूजा की भांति ही यह पुस्तक पूजा हैं. वे ग्राम के बड़े जमींदार थे, ग्राम के विकास को उन्होंने कुएँ और धर्मशाला भी बनवाई. हर वर्ष अपने ग्राम में आर्यसमाज प्रचारकों को बुला कर हवन और उपदेशकों के प्रवचन आदि करवाते थे जिससे ग्राम में छुआछुत, अंधविश्वास और नशे आदि का कलंक सदा को मिट जाये.

सन १९०९ में पटियाला रियासत में आर्यसमाज पर राजद्रोह का अभियोग अंग्रेज सरकार ने चलाया. निर्दोष आर्यसमाज के अधिकारियों और सदस्यों को बिना कारण जेल में बंद कर दिया गया.इस कदम का उद्देश्य सिखों और आर्यों में आपसी वैमनस्य पैदा करना व देसी रियासतों से आर्यसमाज की जागरण क्रांति की मशाल को मिटा देना था. इस संकट की घड़ी में जब कोई भी वकील आर्यसमाज का केस लड़ने को तैयार न हुआ तो खुद स्वामी श्रद्धानन्द ने ही आर्यसमाज के वकील के केस की पैरवी करी और कोर्ट में सिद्ध किया कि आर्यसमाज का उद्देश्य समाज का कल्याण करना हैं न कि राज द्रोह करना. इस मामले में अर्जुन सिंह भी सक्रिय हुए. अन्य आर्यों के साथ मिलकर उन्होंने गुरु ग्रन्थ साहिब के ७०० ऐसे श्लोक प्रस्तुत किऐ जो वेदों की शिक्षा से मेल खाते थे.इस प्रकार सिख समाज और आर्य समाज में आपसी मधुर सम्बन्ध को बनाने में मील के पत्थर साबित हुए.

सत्य मार्ग के तपस्वी

एक बार वे एक विवाह उत्सव में शामिल हुए जहाँ एक सिख ग्रंथी स्वामी दयानंद रचित सत्यार्थ प्रकाश की आलोचना कर रहा था. अपने उसे चुनौती दी कि वह जिस कथन के आधार पर आलोचना कर रहा हैं वह कथन ही सत्यार्थ प्रकाश में नहीं हैं. ग्रंथी ने कहा कि यदि सत्यार्थ प्रकाश लाओंगे तो मैं प्रमाण दिखा दूंगा. अर्जुन सिंह को  पूरे गाँव में सत्यार्थ प्रकाश न मिला तो तत्काल अपने गाँव वापस गए और अगले दिन सत्यार्थ प्रकाश लेकर वापिस आ गए.आलोचक उन्हें सत्यार्थ प्रकाश में कोई भी गलत प्रमाण न दिखा सका और माफ़ी मांगकर पिण्ड छुड़ाया.ध्यान दीजिये अर्जुन सिंह का गाँव उस गाँव से करीब ६० मील की दूरी पर था. सत्य मार्ग पर चलते हुए जो कष्ट होता हैं उसे ही असली तप कहते हैं.

पूरा कुटुंब क्रांति के मार्ग पर

स्वामी दयानंद १८५७ के पश्चात पहले गुरु थे जिन्होंने स्वदेशी राज्य का समर्थन किया और विदेशी बहिष्कार  का आवाह्न किया. उनके इस जनचेतना आह्वान का सरदार अर्जुन सिंह पर इतना प्रभाव पड़ा कि न केवल वे खुद आज़ादी की दीवानों की फौज में शामिल हुए बल्कि उनका समस्त कुटुंब भी इसी रास्ते पर चल पड़ा था.जब भगत सिंह और जगत सिंह आठ वर्ष के हुए तो अर्जुन सिंह ने अपने दोनों पोतों का यज्ञोपवीत पंडित लोकनाथ तर्कवाचस्पति (भारत के पहले अन्तरिक्ष यात्री राकेश शर्मा के दादा) के हाथों से करवाया और एक पोते को दायीं भुजा पर और दूसरे पोते को बायीं भुजा में भरकर यह संकल्प लिया- मैं इन दोनों पोतों को राष्ट्र की बलिवेदी के लिए दान करता हूँ. अर्जुन सिंह के तीनों लड़के पहले से ही देश के लिए समर्पित थे. उनके सबसे बड़े पुत्र और भगत सिंह के पिता किशन सिंह सदा हथकड़ियों की चौसर और बेड़ियों की शतरंज से खेलते रहे, उनके मंजले पुत्र अजित सिंह को तो देश निकाला देकर मांडले भेज दिया गया , बाद में वे विदेश जाकर ग़दर पार्टी के साथ जुड़कर कार्य करते रहे. उनके सबसे छोटे पुत्र स्वर्ण सिंह का जेल में तपेदिक से युवावस्था में ही देहांत हो गया था. अपने दादा के देश हित में लिए संकल्प को पूरा करने को, अपने पिता और चाचा के अपनाये  कंटक भरे मार्ग पर चलते हुए भगत सिंह भी वीरों की भांति देश के लिए २३ मार्च १९३१ को २३ वर्ष की अल्पायु में फाँसी पर चढ़ कर अमर हो गए.

भगत सिंह के मन में उनके दादा सरदार अर्जुन सिंह के बोएं क्रांति बीज आर्य क्रांतिकारियों भाई परमानन्द, करतार सिंह सराभा ,सूफी अम्बा प्रसाद और लाला लाजपत राय जैसे क्रांतिकारियों की दी खाद से पल्लवित होकर जवान होते होते देश को आजाद करवाने की विशाल बरगद रुपी प्रतिज्ञा बन गए.यह पूरा परिवार आर्यसमाज की प्रगतिशील विचारधारा से प्रभावित था जिसका श्रेय सरदार अर्जुन सिंह को जाता हैं.

 आज़ादी की लड़ाई में अधिकांश गर्म दल और ८०% के करीब नर्म दल आर्यसमाज की धार्मिक विचारधारा से प्रेरित था इसलिए स्वामी दयानंद को भारत देश को आजाद करवाने के उद्घोष वाहक मानना चाहिए.

शहीद की मां को प्रणाम कर गयी

पैदा तुझे उस कोख का एहसान है

सैनिकों के रक्त से आबाद हिन्दुस्तान है

तिलक किया मस्तक चूमा बोली ये ले

कफन तुम्हारा मैं मां हूं पर बाद में,

पहले बेटा वतन तुम्हारा …

धन्य है मैया तुम्हारी भेंट में बलिदान में झुक गया है

देश उसके दूध के सम्मान में दे दिया है लाल

जिसने पुत्र मोह छोड़कर चाहता हूं

आंसुओं से पांव वो पखार दूं

ए शहीद की मां आ तेरी मैं आरती उतार लू

नहीं साहब, भगत सिंह को बड़ा नहीं दिखाया गया है, बल्कि उन्हें बहुत छोटा करके दिखाया गया है।

यह छोटा दिखाने का षड्यंत्र काँग्रेस व वामपंथियों ने की है। इन सब के बावजूद आम जनता के मन में शहीदे आजम सरदार भगत सिंह के प्रति अथाह सम्मान है। अतः इसी सम्मान का लाभ उठाने को वामपंथी लोग उन्हें वामपंथी बताने की कोशिश कर रहे हैं।

सरदार भगत सिंह कहीं से भी वामपंथी नहीं थे। वह एक विशुद्ध क्रांतिकारी व महान देशभक्त व्यक्ति थे। वह महान सिख गुरु श्री गोविंद सिंह के आदर्शों को जीने वाले व्यक्ति थे।

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