महाराजा सुहेलदेव बहराइच का युद्ध हारे या जीते, मजार पूजने का क्या तुक है?

Maharaja Suheldev Masood Ghazi Syed Salar History Know About Bahraich Battle Of 11th Century

Kahani Uttar Pradesh Ki: महाराजा सुहेलदेव और मसूद गाजी के युद्ध में कौन जीता था? बहराइच के युद्ध की कथा

सुधाकर सिंह 

UP Elections 2022 बहराइच की जंग (Battle of Bahraich) को लेकर बहुत से दावे किए जाते हैं। महाराजा सुहेलदेव (Suheldev History) और सैयद सालार मसूद गाजी (Masood Ghazi) के बीच इस जंग में किसकी जीत हुई इसको लेकर अलग-अलग दावे किए जाते हैं। उत्तर प्रदेश में दोनों का उल्लेख राजनीतिक मंच से भी होता रहता है।

हाइलाइट्स
महाराजा सुहेलदेव और मसूद गाजी का इतिहास 1 हजार साल पुराना
11वीं सदी में बहराइच की जंग में दोनों का हुआ था आमना-सामना
कुछ इतिहासकार मसूद गाजी को चिश्तिया सिलसिले से प्रभावित बताते हैं
21 पासी राजाओं की जंग में मसूद गाजी को हराने का भी होता है दावा

लखनऊ 06 जुलाई।
‘इरादे रोज बनते हैं इरादे टूट जाते हैं, वही अजमेर आते हैं जिन्हें ख्वाजा बुलाते हैं।’ ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती, जिन्होंने अजमेर से चिश्तिया सिलसिले की शुरुआत की। इसी अजमेर शहर से सैयद सालार मसूद गाजी का इतिहास भी जुड़ा है। इस्लाम के उदय के साथ ही हिंदुस्तान में चिश्तिया परंपरा भी अपनी जड़ें जमा रहा था। इसी दौर में मसूद गाजी का जन्म हुआ। गाजी को चिश्तिया सिलसिले से भी जोड़ा जाता है। तलवार की धार पर धर्म का प्रसार करने वाले के रूप में भी गाजी पर दावा होता है। अतीत के पन्नों को पलटें तो पता चलता है कि मसूद गाजी का 11वीं सदी में बहराइच की सरजमीं पर महाराजा सुहेलदेव से आमना-सामना हुआ। चुनावी माहौल के बीच दोनों को लेकर यूपी की सियासत भी गर्मा जाती है। आइए जानते हैं कि सुहेलदेव और सैयद सालार मसूद गाजी के बारे में क्या दावे हैं। क्या है बहराइच की जंग का इतिहास?

 

बहराइच का गाजी मियां का मशहूर मेला

महाराजा सुहेलदेव का अतीत जानने से पहले गाजी मियां के मेले का जिक्र भी जरूरी है। नेपाल सीमा से लगा यूपी का बहराइच जिला हर साल मई में लगने वाले एक मेले के लिए मशहूर है। स्थानीय लोगों के बीच यह बाले मियां की मजार के नाम से आस्था के केंद्र के रूप में चर्चित है। बहराइच में सैयद सालार मसूद गाजी और महाराजा सुहेलदेव दोनों की चर्चा होती है। 1034 ईसवी में मौत के बाद मसूद गाजी की कब्र बहराइच जिले में बनाई गई। यहां जल्द ही आस-पड़ोस से लोग पहुंचने लगे। वहीं 1250 ईसवी में दिल्ली के सुल्तान नसीरुद्दीन महमूद ने इस कब्र पर मजार बनवा दी।

सुल्तान नसीरुद्दीन महमूद के समय में बनी मजार

बहराइच से सटे बलरामपुर के एमएलके पीजी कॉलेज के इतिहास विभाग के असोसिएट प्रफेसर तबस्सुम फरखी ने एनबीटी ऑनलाइन को बताया, ‘1246 से 1266 तक नसीरुद्दीन महमूद दिल्ली सल्तनत का सुल्तान था। उसी ने यहां पर मजार बनवाई थी। इसके बाद दिल्ली के सुल्तान यहां आने लगे। बंगाल का सुल्तान यहां बिना इजाजत के आया। इस पर दिल्ली के सुल्तान फिरोजशाह तुगलक ने ऐतराज जताया। हालांकि बाद में फिरोज शाह तुगलक भी वहां गया। कहते हैं कि यहां से लौटने के बाद वह कट्टर हो गया था।’

13वीं सदी में इब्न बतूता भी दरगाह पर आया

13वीं सदी में मुहम्मद बिन तुगलक के शासन काल में अफ्रीकी यात्री इब्न बतूता भी यहां आया। लगातार लोगों के यहां मत्था टेकने से जल्द ही मजार की मान्यता दरगाह के रूप में हो गई। धीरे-धीरे यहां देश के कोने-कोने से लोग दस्तक देने लगे। हर साल मई में यहां उर्स मनाया जाता है और इस मेले में हिंदू-मुस्लिम दोनों समुदाय के लोग पहुंचते रहे हैं। बाराबंकी की चर्चित दरगाह देवा शरीफ से गाजी मियां की बारात आने के साथ इस मेले का आगाज होता है। जिस दिन यह बारात बहराइच में दरगाह पर आती है, ठीक उसी दिन हिंदूवादी संगठन महाराजा सुहेलदेव विजयोत्सव मनाते हैं।

17वीं सदी में मिरात-ए-मसूदी में जिक्र, सबूत नहीं मिले

प्रोफेसर फरखी आगे बताते हैं, ‘चिश्तिया संप्रदाय से आने वाले अब्दुर रहमान रशीदी ने 17वीं सदी में फारसी में मिरात-ए-मसूदी लिखी थी। उस किताब में उन्होंने लिखा कि सालार मसूद महमूद गजनवी का भांजा था। हालांकि इसका सबूत कहीं नहीं मिला। रशीदी ने अपनी किताब में सैयद सालार को महिमामंडित किया। उन्होंने मसूद गाजी को चिश्तिया सिलसिले से जोड़ दिया। इस किताब से पता चलता है कि गाजी का जन्म 1014 ईसवी में अजमेर में हुआ। उनके पिता का नाम सालार साहू था। बाराबंकी के पास सतरिख में सालार साहू की मृत्यु हुई। यहां भी एक मजार है। वहीं अबुल फजल ने आइन-ए-अकबरी में लिखा कि मसूद गाजी महमूद गजनवी का भांजा था। ऐसी भी चर्चा होती है कि मुगल बादशाह अकबर भेष बदलकर एक बार मसूद गाजी की दरगाह पर गए थे।’

मसूद गाजी का सूफी परंपरा से प्रभावित होकर महिमामंडन’

दिल्ली यूनिवर्सिटी के प्रफेसर और इतिहासकार शाहिद अमीन ने Conquest and Community: The Afterlife of Warrior Saint Ghazi Miyan नाम से एक किताब लिखी है। इसमें वॉरियर सेंट (योद्धा संत) के रूप में सैयद सालार मसूद गाजी का जिक्र है। अपनी किताब में वह रहमान रशीदी के दावे को ऐतिहासिक दस्तावेज की जगह सूफी परंपरा से प्रभावित होकर निकली इबारत मानते हैं। मिरात-ए-मसूदी में सालार मसूद की जिस मां (गजनवी की बहन) का जिक्र है, वैसा किसी ऐतिहासिक दस्तावेज में नहीं मिलता है। यहीं नहीं ऐतिहासिक तथ्यों के मुताबिक गजनवी की फौज में गाजी मसूद के पिता सालार साहू नाम के किसी सिपहसालार का जिक्र भी नहीं मिलता है।

सुहेलदेव के राजभर राजा होने में सच्चाई संभव’

प्रयागराज के जीबी पंत सोशल साइंस इंस्टिट्यूट के प्रोफेसर बद्री नारायण तिवारी ने Fascinating Hindutva: Saffron Politics and Dalit Mobilisation नाम से एक किताब लिखी जिसमें उन्होंने पासी और राजभर समुदाय के सुहेलदेव की विरासत से खुद को जोड़ने का जिक्र किया है। बद्री नारायण ने एक इंटरव्यू में कहा था कि उस दौर में पासी या राजभर राजा होते थे, क्योंकि अपनी शक्ति और संगठन के बल वे राज स्थापित करने में कामयाब हो जाते थे। लिहाजा राजा सुहेलदेव के संदर्भ में इस धारणा को खारिज नहीं किया जा सकता। उनका राज्य भी कोई बहुत विशाल इलाके में नहीं था। कई लेखक सुहेलदेव की जाति को लेकर भर, भर राजपूत, पासी, पांडववंशी, नागवंशी क्षत्रिय और विसेन क्षत्रिय के रूप में भी दावा करते रहे हैं।

सुहेलदेव ने मसूद का सिर काटा या गले में तीर मारा!

हिंदूवादी संगठनों का दावा है कि जिस जगह पर मसूद गाजी की दरगाह है, वहां पर उस दौर में बालार्क ऋषि का आश्रम हुआ करता था। उनको राजा सुहेलदेव का गुरु बताया जाता है। दक्षिणपंथ से प्रभावित एक रिसर्च पेपर (The Forgotten Battle of Bahraich) में दावा किया गया है कि सुहेलदेव ने या तो मसूद का सिर काट दिया या फिर उसके गले में तीर मारा था। इस रिसर्च के मुताबिक मसूद की मौत सूर्यकुंड झील के पास महुए के पेड़ के नीचे हुई। हालांकि ऐसा तथ्य कहीं और नहीं मिला।

21 पासी राजाओं की बहराइच की लड़ाई में जीत?

रिसर्च पेपर के मुताबिक बहराइच की लड़ाई में सुहेलदेव ने 21 पासी राजाओं का गठबंधन बनाकर सैयद सालार मसूद गाजी को युद्ध में हरा दिया। इन राजाओं में बहराइच, श्रावस्ती के साथ ही लखीमपुर, सीतापुर, लखनऊ और बाराबंकी के राजा भी शामिल थे। हिंदू संगठनों के दावे के मुताबिक 1033 ईसवी में मसूद गाजी और सुहेलदेव की सेनाओं में बहराइच में भीषण जंग हुई। इस युद्ध में घायल मसूद मरणासन्न अवस्था में पहुंच गया और बाद में उसकी मौत हो गई। उसके साथियों ने बहराइच में मसूद की बताई जगह पर ही उसे दफना दिया। बाद में वहां मजार बनी और दिल्ली के सुल्तानों के दौर में यह दरगाह के रूप में मशहूर होती चली गई।

राजभर वोट पूर्वांचल में महत्वपूर्ण 

पूर्वांचल में राजभर वोट काफी महत्वपूर्ण माना जाता है। दर्जनों सीटों पर हार-जीत में ये बड़ा फैक्टर है। अनुमान है कि पूर्वी उत्तर प्रदेश में राजभर समुदाय की जनसंख्या लगभग 18 प्रतिशत है। वहीं पूरे राज्य में लगभग ढाई प्रतिशत राजभर वोट हैं। पूर्वांचल के गाजीपुर, वाराणसी, आजमगढ़, मऊ और बलिया से लेकर अवध के बहराइच-श्रावस्ती तक राजभर वोट राजनीतिक बिसात पर बड़ी लकीर खींचने की ताकत रखते हैं। 15 जिलों की 60 सीटों पर समुदाय का अच्छा खासा असर है। वहीं राजभर उत्तर प्रदेश की उन 17 अति पिछड़ी जातियों में से एक हैं, जो लंबे अरसे से अनुसूचित जाति का दर्जा मांगते आ रहे हैं। महाराजा सुहेलदेव की विरासत पर दावा करने वाले ओम प्रकाश राजभर ने सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी बनाई।
Genus Power:

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