मत: अर्थशास्त्री मनमोहन लेकिन जीडीपी बढ़ाई अटल और मोदी ने

Manmohan May Be An Economist But Atal And Modi Took The Lead On Gdp
मत: मनमोहन भले अर्थशास्त्री हैं लेकिन जीडीपी पर बाजी तो अटल और मोदी ने ही मारी

दो दशकों से भी अधिक समय से भारत की विकास दरें काफी कम आंकी गई है। पहले बाहरी झटकों जैसे वित्तीय संकटों ने उच्च विकास दरें बाधित की थी, लेकिन अब ऐसा नहीं है। देश का बहीखाता अब ज्यादा संतुलित है। इस लेख में अटल से मोदी तक के कार्यकाल का हिसाब-किताब पेश किया गया है।
मुख्य बिंदु 
ज्यादातर अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री मोदी के शासन में आर्थिक प्रगति स्वीकार नहीं करते
लेकिन मोदी सरकार में जीडीपी वृद्धि की रफ्तार मनमोहन शासन से तेज है
मनमोहन अर्थशास्त्री थे लेकिन अटल सरकार के चालू खाता सरप्लस को घाटे में बदल दिया
लेखक: प्रसेनजित के. बसु
जब जुलाई-सितंबर तिमाही 2023-24 का असली जीडीपी आंकड़ा आया तो 7.6% की वृद्धि दर को ‘सुखद आश्चर्य’ के रूप में देखा गया। 2022-23 के लिए बताई गई 7.2% की वृद्धि भी ऐसी ही थी। पिछले 33 वर्षों से एशिया की अर्थव्यवस्थाओं का अनुमान लगाने वाले एक अर्थशास्त्री के रूप में मुझे केवल यही हैरानी होती है कि हर साल भारत की विकास दर पर सर्वसम्मति 6.5% के आसपास ही क्यों बनती है। फिर साल खत्म होने के बाद और जब वित्तीय वर्ष के अंत में तीन साल बाद ‘अंतिम’ अनुमान जारी होता है, तो ‘आश्चर्यजनक’ बढ़त दिखती है।

दो दशक पहले ही रफ्तार बदली

भारत अब तेज रफ्तार से विकास के रास्ते चल चुका जिसे अधिकांश अर्थशास्त्री स्वीकारते हिचकते हैं। 2003-04 और 2007-08 के बीच, वास्तविक जीडीपी औसतन 7.9% वार्षिक गति से बढ़ी। 2008-09 में वैश्विक मंदी ने मनमोहन सिंह के पहले कार्यकाल में औसत वृद्धि 6.9% तक नीचे ला दी। उनके दूसरे कार्यकाल में औसत वार्षिक वृद्धि और कम होकर 6.7% हो गई।

2014 से लगातार बंपर उछाल

नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री के रूप में पहले कार्यकाल में भारत की वास्तविक जीडीपी औसतन 7.4% वार्षिक गति से बढ़ी, जो किसी भी प्रधानमंत्री के कार्यकाल की सबसे तेज गति है।

सुधार विकास को गति देते रहेंगे

मोदी सरकार के आर्थिक सुधारों ने बड़े जमीनी बदलाव लाए। इनमें जीएसटी लाकर पूरे देश को सिंगल मार्केट में बदलना, इन्सॉल्वेंसी एंड बैंकरप्सी कोड (आईबीसी) से ऋण देने वाले संस्थानों के अधिकार मजबूत करना, जैम (JAM) यानी जनधन-आधार-मोबाइल की त्रिशक्ति से प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण (डीबीटी) और तेजी से मौलिक तंत्र में सुधार आदि शामिल हैं। इस तरह, 2018-19 तक के 15 वर्षों में भारत की औसत वार्षिक वास्तविक जीडीपी वृद्धि दर 7% थी। वहीं, 1998-99 से 2018-19 तक के 21 वर्षों में भारत की वास्तविक जीडीपी विकास दर औसतन 6.7% प्रति वर्ष आंकी गई।

महामारी के झटके से भी बेअसर रहा भारत

जनवरी 2020 में कोविड-19 का प्रकोप ऐसे समय में आया जब वैश्विक विकास पहले से ही धीमा हो रहा था। इस कारण भारत की वास्तविक जीडीपी ग्रोथ 2019-20 में घटकर 3.9% हो गई। वैश्विक महामारी सदियों में आई आर्थिक आपदा है और इसे निश्चित रूप से अर्थव्यवस्था की दीर्घकालिक संभावित वृद्धि के किसी भी विश्लेषण से बाहर रखा जाना चाहिए।

रफ्तार वापसी का सबूत

अप्रैल 2021 से सितंबर 2023 तक पिछले ढाई सालों में भारत की वास्तविक जीडीपी ग्रोथ औसतन 8.1% वार्षिक रही है। क्या हमें अब यह स्वीकार नहीं करना चाहिए कि यह – या कम से कम पिछले साढ़े नौ साल में से साढ़े सात साल का 7.5% औसत वार्षिक विकास, भारत की नई रफ्तार या संभावित विकास दर है?

सुधारों से खुले भरपूर निवेश के द्वार

अतिरिक्त आर्थिक सुधार (दुनिया के लीडिंग डिजिटल इन्फ्रास्ट्रक्चर का सफल रोलआउट) और ट्रांसपोर्टेशन इन्फ्रास्ट्रक्चर में भारी सुधार (पिछले दशक की तुलना में हाईवे निर्माण की गति दोगुनी, हवाई अड्डों और शहरी रैपिड ट्रांजिट सिस्टम की संख्या दोगुनी और बंदरगाहों की कार्यकुशलता में भारी वृद्धि) निश्चित रूप से उत्पादकता बढ़ा रही है। और वे सुधार, कॉर्पोरेट टैक्स दरों में वैश्विक रूप से प्रतिस्पर्धी स्तरों तक कटौती के साथ प्रॉडक्शन लिंक्ड इंसेंटिव (पीएलआई) निवेश  प्रोत्साहित कर रहे हैं।

पिछले 18 महीने के प्रमाण देखिए

पिछले छह तिमाहियों में से प्रत्येक में भारत का वास्तविक सकल निश्चित पूंजी निर्माण लगातार साल-दर-साल 8% या उससे अधिक दर से बढ़ा है। जब अधिक पूंजी लगती है तो स्वाभाविक रूप से उत्पादकता को बढ़ावा मिलता है। इसलिए मोदी के भारत में 7.5% की वृद्धि को न्यू नॉर्मलल के रूप में स्वीकार करने का समय आ गया है।

अतीत में भी रहे हैं 7%+ के दौर

अतीत में 7% से अधिक वृद्धि के अन्य दौर भी रहे हैं। अप्रैल 1994 और मार्च 1997 के बीच भारत का वास्तविक जीडीपी सालाना 7.3% बढ़ी। फिर एशिया में वित्तीय संकट आया। इस कारण विकास अनिवार्य रूप से धीमा हो गया।

अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के कार्यकाल

बाहरी उठापटक से भारत को बेअसर रखने और ब्रेकनेक क्रेडिट ग्रोथ से कमजोर  वित्तीय प्रणाली को मजबूत बनाने को समर्पित वाजपेयी ने 2001-02 से 2003-04 तक तीन सालों में करेंट अकाउंट सरप्लस (वस्तुओं और सेवाओं के आयात से ज्यादा निर्यात ) दिया और अपने छह वर्षों के कार्यकाल में औसत वार्षिक वास्तविक जीडीपी विकास 5.9% रहा, जो उस समय तक किसी भी भारतीय प्रधानमंत्री  के कार्यकाल में अंकित सबसे तेज गति थी।

मनमोहन युग के आंकड़े भी देख लीजिए

मनमोहन सिंह के खासकर दूसरे कार्यकाल में वार्षिक औसतन 6.8% वृद्धि दर मिली। वाजपेयी से तीन साल का चालू खाता सरप्लस पाने के बाद, सिंह ने चालू खाता घाटा चौड़ा कर दिया जिससे 2011-12 में यह जीडीपी का 4.3% और 2012-13 में 4.8% तक पहुंच गया। साथ ही, उनके दूसरे कार्यकाल के पांचों वर्षों में उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई) आधारित मुद्रास्फीति औसतन 10% से अधिक रही। पिछले तेज विकास दरों की तरह बाहरी दबावों ने आखिरकार विकास रोक दिया।

इस बार अलग है मामला

हालांकि, मोदी के शासन में किसी भी वर्ष चालू खाता घाटा जीडीपी के 2.1% से अधिक नहीं हुआ है और इस साल 1% से भी कम होने की संभावना है। नतीजतन, विदेशी ऋण अब जीडीपी के 18% से कम है। जून 2014 से अक्टूबर 2023 के बीच सीपीआई आधारित मुद्रास्फीति औसतन 5% वार्षिक रही है और किसी भी महीने 7.6% से अधिक नहीं हुई है। मई 2014 में ‘ट्विन बैलेंस शीट क्राइसिस’ से घिरा वित्तीय क्षेत्र साफ-सुथरा और मजबूत हुआ है।

इसलिए, मैक्रोइकॉनॉमिक और वित्तीय स्थिरता का मतलब है कि मोदी युग में 7.5% की वृद्धि की ये नई रफ्तार आगे और तेज विकास का संकेत है। अब समय है कि आर्थिक भविष्यवक्ता उस हकीकत को स्वीकार करें जो उनके सामने खड़ी है।

लेखक अर्थशास्त्री हैं।

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