रुस-यूक्रेन संघर्ष में तटस्थ तो कई देश, भारत पर ही दबाव-धमकी ज्यादा क्यों?

इजरायल, अरब, तुर्की… रूस पर तो और देश भी न्‍यूट्रल, फिर अमेरिका के निशाने पर भारत ही क्‍यों? समझ‍िए

भारत भले दशकों से न्‍यूट्रल रहकर दुनिया के चक्‍करों में फंसने से बचता रहा हो। लेकिन, इस बार उस पर अमेरिका भयानक दबाव बनाये है।

Russia-Ukraine War: यूक्रेन पर हमले के बाद अमेरिका सहित तमाम पश्चिमी देश रूस को अलग-थलग करने पर अमादा हैं। वो तरह-तरह की पाबंदियों से रूस के पैरों में बेड़‍ियां डालना चाहते हैं। संयुक्‍त राष्‍ट्र (United Nations) में उसके खिलाफ कई प्रस्‍ताव लाए जा चुके । ज्‍यादातर देशों ने इन प्रस्‍ताव के समर्थन में वोट किया। वहीं, ऐसे देश भी हैं जो न्‍यूट्रल (India Neutral Stand) हैं। इनमें भारत भी है। ये देश संयुक्‍त राष्‍ट्र में रूस के खिलाफ प्रस्‍तावों पर वोट डालने से बचते रहे हैं। यह अलग है कि भारत को यह रुख बनाए रखने को अमेरिका की जितनी धमकियों (America threatens India) और दबाव सहना पड़ा है उतना दूसरे देशों ने नहीं। दक्षिण अफ्रीका, इजरायल, संयुक्‍त अरब अमीरात, तुर्की, चीन… ऐसे देशों की लंबी सूची है जो किसी एक की पक्षदारी से बचे हैं। आखिर भारत पर ही अमेरिकी खूंटा पकड़ने का इतना दबाव क्‍यों है? आइए, यहां इस बात को समझते हैं।

सोवियत का हंगरी (1956), चेकोस्‍लोवाकिया (1968) या अफगानिस्‍तान (1979) में हस्‍तक्षेप हो या 2003 में अमेरिका का इराक पर हमला, भारत हमेशा इस लाइन पर चला है। यह लाइन देश के पहले पीएम पंडित जवाहर लाल नेहरू के समय से खिंची है। भारत में भले सरकारें अदलती-बदलती रही हों। लेकिन, विदेश नीति में उसका रुख कमोबेश नहीं बदला। वह हमेशा शांति का पक्षधर रहा। हालांकि, दूसरों को अपनी तरह चलने का कभी जोर नहीं डाला। न ही वह खेमेबाजी में फंसा।

यूक्रेन पर हमले के बाद रूस की आलोचना कर उस पर प्रतिबंधों की पैरोकारी में अमेरिका के सुर में सुर न मिलाने वाले देशों में सिर्फ भारत ही नहीं है। कई प्रमुख अर्थव्‍यवस्‍थाओं और यहां तक अमेरिका के ही तमाम सहयोगी देशों ने भी अपना रुख अलग रखा है। हालांकि, अमेरिका ने अपने पाले में खड़ा दिखने को उन पर भारत जितना दबाव नहीं बनाया।

दुनिया की प्रमुख अर्थव्‍यवस्‍थाओं में दक्षिण अफ्रीका ने भी रूस की निंदा करने वाले प्रस्‍ताव पर वोटिंग नहीं की। खाड़ी में अमेरिका का करीबी सहयोगी संयुक्‍त अरब अमीरात भी सुरक्षा परिषद में रूस के खिलाफ वोट देने से दूर रहा। पश्चिम एशिया में अमेरिका के सहयोगी इजरायल ने हमले के लिए रूस की निंदा की। लेकिन, प्रतिबंधों की पैरोकारी से बचा। नाटो का हिस्‍सा तुर्की ने भी यही किया। फिर सारी आलोचना भारत की ही क्‍यों? अमेरिकी राष्‍ट्रपति जो बाइडन हों या अमेरिका के डिप्‍टी नेशनल सिक्‍योरिटी एडवाइजर दलीप सिंह दोनों ने ही भारत को चेतावनी दी।

भारत को ही टारगेट करने का क्या कारण है?

यह सोची समझी रणनीति का हिस्‍सा है। अमेरिका के ऐसा करने के पीछे मुख्‍य रूप से तीन कारण हैं। ये कारण राजनीतिक, आर्थिक और रणनीतिक हैं। राजनीतिक नजरिये से देखें तो यहां नैरेटिव की लड़ाई भी है। पश्चिम व्‍लादिमीर पुतिन को विलेन बनाने की कोशिश में है। वह हमले को तानाशाह की सनक  दिखाने के प्रयासों में है। वह दुनिया को मैसेज देना चाहता है कि लड़ाई लोकतंत्र बनाम तानाशाही में है। ऐसे में दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र भारत ही बाहर रहे तो अमेरिका का नैरेटिव कमजोर दिखने लगता है।

अब आर्थिक पहलू समझें। रूस पर प्रतिबंध मुख्‍यत: पश्चिमी देशों ने लगाए। सिर्फ तीन एशियाई देशों जापान, दक्षिण कोरिया और सिंगापुर ने प्रतिबंधों का समर्थन किया । दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्‍यवस्‍था चीन रूस पर अमेरिकी प्रतिबंधों से नहीं बंधेगा। वह अमेरिकी हुक्‍म की तामील नहीं करेगा। भारत भी रूस से कारोबार जारी रखता है तो रूसी अर्थव्‍यवस्‍था पर प्रतिबंधों की धार का असर नगण्य होगा।

तीसरा पक्ष रणनीतिक है। शीत युद्ध के बाद यह सबसे नाजुक समय है। कोरोना की महामारी के बाद से दुनिया की अर्थव्‍यवस्‍थाओं के पहिए पहले ही धीरे घूम रहे हैं। वहीं, भारत ने पिछले कुछ दशकों में अमेरिका और पश्चिमी देशों से अपने रणनीतिक संबंध मजबूत किये हैं। वहीं, रूस से भी भारत के संबंध अच्‍छे रहे हैं। कभी भी ऐसा मौका नहीं आया जब इन रिश्‍तों को तराजू पर तौला जा सके।

हालांकि, यूक्रेन पर हमले के बाद रूस और पश्चिमी देशों में दरार पड़ गई है। भारत जैसे देशों पर किसी एक को चुनने की तलवार लटकी है। वो कठिन स्थितियों में खड़े हैं। भारत-प्रशांत क्षेत्र में चीन को काउंटर करने को अमेरिका भारत को बड़ा विकल्‍प मानता है। हालांकि, अमेरिका यह भी अपेक्षा करता है कि भारत अपनी रणनीतिक स्‍वायत्‍तता छोड़ पश्चिमी देशों के साथ खड़ा हो जाए। यह अब तक नहीं हुआ है।

क्‍या सोचता है भारत?

रूस हो या अमेरिका, भारत किसी भी सुपरपावर की कठपुतली नहीं बनना चाहता। वह खुद ही पावर बनने की राह पर है। वह अपनी नीतियों पर चलता रहा है। इसमें सबसे ऊपर राष्‍ट्रीय हित है। भारत सोचता है कि न्‍यूट्रल स्‍टैंड ही मौजूदा माहौल में सबसे अच्‍छा है। इससे वह दोनों पक्षों से बातचीत के चैनल खुले रख सकता है। न्‍यूट्रल रहने का यह कतई मतलब नहीं कि वह किसी भी तरह से युद्ध समर्थक है। भारत का अहम रणनीतिक साझेदार अमेरिका फिलहाल इसी पहलू को समझ नहीं पा रहा है। अमेरिका बयानों से तो यही दिखता है।

रूस की धमकी में नहीं आया

हाइलाइट्स
मानवाधिकार परिषद से रूस को निलंबित करने का प्रस्ताव पास

प्रस्ताव पर रूस की चेतावनी के बावजूद भारत रहा अनुपस्थित

भारत बोला, हम शांति और हिंसा को तत्काल समाप्त करने के पक्ष में

यूक्रेन संकट (Ukraine Crisis) को लेकर दुनिया भले ही दो ध्रुवों में बंटती दिख रही हो पर, भारत का रुख आज भी तटस्थ है। दशकों से भारत की यह नीति रही है कि वह किसी खेमे में खुद को बांधकर रखना नहीं चाहता। वह अपना फैसला दो टूक और बिना किसी लाग लपेट के सामने रखता है। हालांकि इस बार चुनौती थोड़ी अलग थी। यूक्रेन पर रूस के हमले के बाद यूएन में 11वीं बार वोटिंग से भारत अनुपस्थित रहा, लेकिन इस बार नई दिल्ली ने मॉस्को को बड़ा संदेश भी दे दिया। जी हां, YES वोट का मतलब तो अमेरिका के नेतृत्व वाले गुट का समर्थन है, पर अनुपस्थित रहने को लेकर भी रूस ने चेतावनी दे रखी थी। मॉस्को ने साफ कहा था कि यस वोट और अनुपस्थित दोनों को वह दोस्ताना रवैया नहीं मानेगा और द्विपक्षीय संबंधों पर असर पड़ेगा। बताते हैैं कि रूसी राजनयिक ने भारत के टॉप डिप्लोमेट से संपर्क कर समर्थन में वोट करने को भी कहा था। हालांकि रूस के रेड सिग्नल के बावजूद भारत ने अनुपस्थित रहने का विकल्प चुना। भारत का संदेश अमेरिका और रूस दोनों को स्पष्ट गया है कि कोई अपनी बात थोपने या मास्टर या चौधरी बनने की कोशिश न करे।

अमेरिका ने भी धमकाया पर…

यूक्रेन-रूस युद्ध पर जब बार-बार वोटिंग से भारत अनुपस्थित रहने लगा तो अमेरिका ने दबाव बनाने को धमकाने वाला लहजा भी अपनाया लेकिन उसका कोई असर नहीं हुआ। दुनिया की शीर्ष मानवाधिकार संस्था से रूस को निलंबित करने के प्रस्ताव से भारत ने दूरी बनाई। जबकि वोटिंग से ठीक पहले अमेरिकी राष्‍ट्रपति के शीर्ष सलाहकार ने धमकी दी थी कि अगर भारत ने रूस से रणनीतिक गठजोड़ किया तो उसे लंबे समय तक भारी खामियाजा भुगतना होगा। पिछले दिनों दिल्ली आए अमेरिका के डिप्टी एनएसए दलीप सिंह ने यहां तक कहा कि चीन ने LAC पर हमला किया तो रूस बचाने नहीं आएगा। अमेरिका ने पूरी कोशिश की थी कि भारत उसके साथ दिखे, पर भारत को जो ठीक लगा उसने किया।

रूस को निलंबित करने के विरोध में भारत!

भारत भले ही रूस के खिलाफ प्रस्ताव से अनुपस्थित रहा, पर उसका मानना है कि बूचा नरसंहार या यूक्रेन में मानवाधिकार उल्लंघनों की अंतरराष्ट्रीय जांच से पहले यह प्रस्ताव नहीं आना चाहिए था। दिल्ली का अपना तर्क है कि यह प्रस्ताव UNGA से पहले मानवाधिकार परिषद में आना चाहिए था। यह पश्चिमी देशों को भारत का संकेत भी है कि तय प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया। आगे रूस को भी भारत का रुख समझ में आयेगा।

चीन का रूस को खुला समर्थन

दरअसल, यूक्रेन हमले को लेकर रूस पर मानवाधिकार उल्लंघन और युद्धापराध के आरोप लगे हैं। अमेरिका की अगुआई में दुनियाभर के देश रूस के खिलाफ लामबंद हुए और संयुक्त राष्ट्र महासभा ने दुनिया की शीर्ष मानवाधिकार संस्था से उसे निलंबित कर दिया। रूस कहता रहा है कि उसने हमले में नागरिकों को निशाना नहीं बनाया। बूचा शहर में सड़कों पर मिले सैकड़ों शवों की तस्वीरें सामने आने के बाद रूस के खिलाफ वैश्विक समुदाय की नाराजगी तो बढ़ी लेकिन वह कहता है कि इसमें यूक्रेन की चाल है। ऐसे में बृहस्पतिवार को वोटिंग शुरू हुई तो चीन ने रूस को सस्पेंड करने के प्रस्ताव के खिलाफ वोट किया जबकि भारत एक बार फिर वोटिंग से अनुपस्थित रहा।

रूस को संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद (UNHRC) से निलंबित करने के संयुक्त राष्ट्र महासभा में आए प्रस्ताव को उपस्थित सदस्य देशों के दो तिहाई वोटों की जरूरत थी। मतदान में भाग लेने के बाद भारत ने तर्कसंगत और प्रक्रिया सम्मत कारण बताये। भारत का यह रुख महत्वपूर्ण है क्योंकि वैश्विक संगठन के तमाम सदस्य देश इसे लेकर असहज हैं कि उल्लंघनों की जांच पूरी होने का इंतजार किए बगैर रूस को सस्पेंड करने का प्रस्ताव आया।

हम बूचा नरसंहार में शामिल लोगों को न्याय के कठघरे में लाना चाहते हैं। इस मामले में स्वतंत्र और निष्पक्ष जांच जरूरी है। मॉस्को के खिलाफ खोखले आरोप लगे हैं। इसके सबूत मौजूद हैं कि फेक ऑपरेशन से रूसी सेना को बदनाम करने की कोशिश की गई । बूचा नरसंहार यूक्रेन ने ही किया था।
-भारत में रूसी दूतावास

भारत समेत 58 देश अनुपस्थित

अमेरिका के प्रस्ताव पर 193 सदस्यीय महासभा (UNGA) में सपोर्ट में 93 वोट पड़े, जबकि भारत सहित 58 देश अनुपस्थित रहे। अनुपस्थित रहने वालों के वोट काउंट नहीं होतेे।‘मानवाधिकार परिषद में रूस की सदस्यता के निलंबन अधिकार’ शीर्षक प्रस्ताव के खिलाफ 24 मत पड़े। मतदान से अनुपस्थित रहने वाले देशों में बांग्लादेश, भूटान, ब्राजील, मिस्र, इंडोनेशिया, इराक, मलेशिया, मालदीव, नेपाल, पकिस्तान, कतर, सऊदी अरब, सिंगापुर, दक्षिण अफ्रीका, श्रीलंका और संयुक्त अरब अमीरात भी शामिल हैं।

संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थायी प्रतिनिधि टी. एस. तिरुमूर्ति ने कहा, ‘भारत ने महासभा में रूस को मानवाधिकार परिषद से निलंबित करने से संबधित प्रस्ताव पर मतदान में भाग नहीं लिया। हमने तर्कसंगत और प्रक्रिया सम्मत कारणों से यह किया।’ उन्होंने कहा कि यूक्रेन में युद्ध की शुरुआत से अब तक भारत शांति, बातचीत और कूटनीति का पक्षधर रहा है। खून बहाने और निर्दोष लोगों की जान लेने से किसी समस्या का समाधान नहीं निकल सकता। भारत ने कोई पक्ष लिया है तो शांति और हिंसा तत्काल समाप्त करने का लिया है।

दरअसल, यूक्रेन में रूसी सैनिकों पर मानवाधिकारों के घोर उल्लंघन के आरोप लगे हैं। अमेरिका और यूक्रेन ने रूसी सैनिकों के इस कृत्य को युद्ध अपराध करार दिया है। बूचा नरसंहार की तस्वीरें आने के बाद रूस के खिलाफ नाराजगी बढ़ी। भारत का कहना है कि वह मानवाधिकार के संरक्षण को लेकर सबसे आगे रहता है। हमारा मानना है कि सभी फैसले तय प्रक्रिया में लिए जाने चाहिए। यह यूएन समेत अंतरराष्ट्रीय संगठनों के लिए भी लागू होता है। तिरुमूर्ति ने दोहराया कि भारत ने बूचा में आम नागरिकों की हत्याओं की कड़ी निंदा की है और इसके लिए स्वतंत्र जांच का पुरजोर समर्थन किया है।

भारत ने कहा है कि निर्दोष लोगों की जान दांव पर लगी हो तो कूटनीति ही एकमात्र विकल्प होना चाहिए। इस संकट के चलते क्षेत्र में भोजन और ऊर्जा का संकट हो गया है। संयुक्त राष्ट्र में और बाहर रहते हुए यह हमारी सामूहिक जिम्मेदारी है कि हम इस गतिरोध के जल्द समाधान की दिशा में प्रयास करें।

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