दानिश की मौत का दारूलउलूम देवबंद से क्या रिश्ता है?

तालिबान का देवबंदी कनेक्शन: दिल्ली के एक सनकी मौलवी के ‘जहर’ से बना सबसे ख़तरनाक आतंकी संगठन!
गोला बारूद और तोपें तो अफ़ग़ानिस्तान के सैनिकों के पास भी है मगर वह जिहादी नफ़रत नहीं है, जो तालिबानियों में है जिसकी वजह से उनके इंसान होने और जानवर होने में फ़र्क ख़त्म हो गया है. ये नफरत उनके भीतर देवबंदी विचारों का इंजेक्शन दे देकर घुसाई गई है.

दिल्ली का एक सनकी मौलवी, 300 साल बाद भारतीय उप महाद्वीप में इंसान और जानवर होने में फ़र्क मिटा देगा, इसकी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता है. जब भी इंसान कमज़ोर होता है, जाति धर्म और नस्ल के कट्टरवाद का सहारा लेता है. बर्बाद होते मुग़ल सम्राज्य को थामने की आख़िरी कोशिश में दिल्ली के मौलवी द्वारा 300 साल बाद मध्ययुगीन तालिबान पैदा करना कल्पनातीत है. मगर दिल्ली का तालिबानी कनेक्शन एक ऐतिहासिक सच्चाई है.

अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान पिछले 30 सालों से तबाही का खौफ़नाक खेल, खेल रहा है. तालिबान लड़ाकों की कलाशनिकोव रायफ़ल्स से दनदनाती गोलियां, रॉकेट लांचरों से उगलते आग के गोले तालिबान की जो तस्वीर दुनिया के सामने रख रहे हैं वो आधा फसाना है. पूरा सच तो है कि उनके दिलो-दिमाग़ में रायफल की गोलियों की जगह नफ़रती ज़हर दौड़ रहा है और धार्मिक उन्माद आग के गोले की तरह धधक रहा है. जब मैं स्कूल में पढ़ता था तो मेरे गुरू जी का वाद विवाद का सबसे पसंदीदा विषय हुआ करता था ताक़तवर कौन- कलम या तलवार. बाद में स्कूल में पढ़ा Pen is mightier than sword. पर तालिबान के सिर पर नाच रही नंगी हिंसा और पशुता वाले हौसले को देखने के बाद यह वाद-विवाद और कहावतें बेकार दिखती हैं. कलम की तुलना तलवार से नहीं की जा सकती है. एक उन्मादी और ज़हरीला ख़्याल एटम बम से कई गुना विध्वंसक हो सकता है.

जैसे हालात हैं कह सकते हैं कि तालिबान का निर्माण एक सोची समझी रणनीति में किया गया

तालिबान का मतलब अफ़ग़ानी भाषा में छात्र होता है. यह छात्र हैं इस्लाम के देवबंदी स्कूल के. तालिबान को पूरी तरह से समझने के लिए हमें देवबंद और उसके प्रवर्तकों के साथ इनके प्रचार और प्रसार करने वाले लोगों के बारे में भी समझना होगा. दुनिया में बहुत सारे ऐसे लोग हैं जो अमेरिका के अफ़ग़ानिस्तान से यू हीं रात को अचानक छोड़ जाने को बुरा मानते हैं. या फिर अमेरिकी क़दम से असहमत दिखाई देकर कहते हैं कि अमेरिका ने बेहद ग़लत काम किया है. और मासूम अफ़ग़ानियों को तालिबानी जानवरों के सामने छोड़ दिया है. पर सच तो यह है कि यह अमेरिका का भारतीय उपमहाद्वीप समेत खाड़ी देश, सोवियत संघ का भाग रहे देशों और चीन के लिए अपना मास्टर स्ट्रोक-2 चला है.

अब यह इलाक़ा अशांत होगा तो सब उलझे रहेंगे और अमेरिकी हथियारों की बिक्री भी बढ़ेगी. तालिबान वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमला कर भस्मासुर की भूमिका में नहीं आता तो वह अब भी अमेरिकी का लाड़ला बना रहता. क्योंकि अफ़ग़ानिस्तान में उसका तालिबान के मास्टर स्ट्रोक-1 बेहद सफल रहा था. यह 1970 का दौर था जब सोवियत संघ रूस का अफ़ग़ानिस्तान पर दबदबा था.

कम्युनिस्ट सरकार को बचाने के लिए सोवियत संघ रूस ने अफ़ग़ानिस्तान में सैन्य हमला किया था. भारत लगातार ग्रेटर अफ़ग़ानिस्तान के एजेंडे को अफ़ग़ान सरकार के ज़रिए आगे बढ़ा रहा था. तब अपने पश्चिमी प्रांतों को बचाने के लिए पाकिस्तान का जरनल जियाउल हक़ अपने दोस्त सऊदी अरब से मदद मांग रहा था. शीत युद्ध की वजह से अमेरिका की दुश्मनी रूस के साथ अपने चरम पर थी.

फिर अफ़ग़ानिस्तान का भाग्य लिखने के लिए पाकिस्तान, सऊदी अरब और अमेरिका ने नया गठजोड़ बनाया. पर रूस जैसे ताक़तवर देश की मौजूदगी इन्हें डरा रही थी इसलिए इन्हें मुक़ाबले के लिए मुजाहिदीन चाहिए थे. जिस तरह से अफ़ग़ान सेना के तालिबानियों के सामने पांव उखड़ रहे हैं, उसे देखकर आप समझ गए होंगे कि हाथ में हथियार देने से कोई मुजाहिदीन नहीं बन जाता. उसके लिए दिल और दिमाग़ में नफ़रत की आग सुलगानी पड़ती है.

फिर इन तीनों देशों को देवबंद और उसके पाकिस्तानी राजनीतिक पार्टी जमात-ए-उलेमा-ए-इस्लाम में उम्मीद नज़र आयी. आपको बता दें कि उत्तरप्रदेश के एक छोटे से शहर देवबंद के मदरसा दारूल उलूम से निकल कर देवबंद पाकिस्तान के 80 फ़ीसदी मदरसों की रहनुमाई कर रहा है. भले पाकिस्तान में देवबंद को मानने वाले 15-20 फ़ीसदी मुसलमान है मगर अफ़ग़ानिस्तान में इनकी संख्या पचास फ़ीसदी से ज़्यादा है और सौ फ़ीसदी मदरसे देवबंदी है.

अमेरिका, सऊदी अरब और पाकिस्तान ने अफ़ग़ानिस्तान में नफ़रत की खेती के लिए उन्नत बीज की तलाश थी. इसके लिए पाकिस्तान के खैबर-पख्तूनख्वा के एक देवबंदी हक्कानी मदरसे और फिर देवबंद के कराची मदरसे में पढ़ने वाले मुहम्मद उमर को ज़िम्मेदारी देकर मुल्ला मुहम्मद उमर बनाया गया और कंधार के पास अपने गांव सिंगेसर में मिट्टी के एक घर में मदरसा शुरू किया. किसी को खबर हीं नहीं लगी कि कब मुल्ला उम्र ने पहले पचास और 15 हज़ार छात्रों के मदरसे खोल लिए.

इसके लिए पाकिस्तान, अमेरिका और सउदी अरबिया ने खूब पैसे खर्चने शुरू किए. अमेरिका ने 1980 में यूनाइटेड स्टेट एजेंसी फ़ॉर इंटरनेशनल डेवलपमेंट बनाया जिसके जरिए देवबंद के नफ़रती विचारों वाली शिक्षण सामग्री को छपवाकर देवबंदी मदरसों में बांटा जाने लगा. आमोहा की यूनिवर्सिटी ऑफ ने बरस्का इस ज़हर को छात्रों के दिलो दिमाग़ में बैठाने वाली अमेरिकी मदद वाली यूनिवर्सिटी बन गई.

देवबंद है क्या, और पैदा कैसे हुआ?

आप सोच रहे होंगे की वह नफ़रत की कौन सी घुट्टी रही होगी जो इंसान को मुर्दा बनाने की ज़िद पर आमदा करने वाली फिदायीन बना देती है. वह घुट्टी है उत्तरप्रदेश में भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम 1857 के आठ साल बाद स्थापित देवबंद का दारूल उल मदरसा. जिसकी गूंज आज अफ़ग़ानिस्तान में डरावनी शांति के सन्नाटे को डरावने ढंग से तोड़ती है. आज दुनिया में कोई पूछता है कि तालिबान क्या है? जवाब मिलता है- छात्र हैं. फिर पूछते हैं कि कहां के छात्र? तो कहते हैं देवबंद के. अगला सवाल होता है कि देवबंद क्या है? जवाब मिलता है पश्चिमी उत्तर प्रदेश में छोटा सा कस्बाई शहर. मगर असल सवाल तो यह है कि यह देवबंद है क्या और पैदा कैसे हुआ? 1857 के बाद जब देश में अंग्रेज़ी हुकूमत का शासन शुरू हुआ और इस्लामी शासन का अंत हो गया तो सैकड़ों साल तक हिंद पर शासन करने वाले इस्लाम की सर्वश्रेष्ठता के पुनर्प्रतिष्ठा के नाम पर 1866 में मुहम्मद क़ासिम नानौतवी और राशिद अहमद गानगोही ने सच्चे इस्लाम और सच्चा मुसलमान बनाने के नाम पर देवबंद के दारुल उलूम में मदरसे की शुरुआत की.

क्योंकि इनके पास कोई सैन्य ताक़त नहीं थी इसलिए शुरुआत में कहा गया कि देवबंदी मदरसे का काम ईसाई और हिन्दुओं के साथ इस्लाम को लेकर तर्क-वितर्क करना है. दूसरे शब्दों में कहें तो इस्लाम की अच्छाइयों को बताकर दूसरे धर्म के लोगों को प्रभावित करना और फिर प्रभावित करने के बाद क्या करना होगा आप समझ सकते हैं. वह दौर भारत में गांधी, गोखले के उदय होने का दौर था.

1857 की क्रांति के बाद हिंदू-मुसलमान एकता का दौर था, लिहाज़ा इसका विस्तार उत्तर प्रदेश से ज़्यादा पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान के मुस्लिम इलाकों में तेज़ी से हो रहा था. मगर आख़िरी और सबसे अहम सवाल यह है कि देवबंद के मदरसे को शुरू करने की प्रेरणा आख़िर क्या थी? जिस तरह से अंग्रेज़ी हुकूमत के हाथों मुग़ल हुकूमत के ख़त्म होने के बाद देवबंद की शुरुआत की गई थी ठीक उसी तरह से मराठों के हाथों मुग़ल शासन के अंत के भय से 1750 में इस्लाम की सर्वश्रेष्ठता की कोशिश की गई थी.

उस वक्त यह काम किया था देवबंद के जनक और उसके प्रेरणास्रोत शाह वलीउल्लाह मुहद्दिस देहलवी ने. देहलवी के विचारों के प्रचार-प्रसार के लिए ही देवबंद का मदरसा बना. औरंगज़ेब की मौत के बाद रंगीला शाह के समय मुग़ल साम्राज्य बर्बाद हो रहा था और इसे देखकर मुग़ल साम्राज्य का शाही मौलवी शाह वलीउल्लाह बेचैन था. शाह वली उल्लाह औरंगज़ेब के शाही मौलवी शाह अब्दुल्ला रहीम का बेटा था.

वही शाह अब्दुल्लाह रहीम जिसने औरंगज़ेब के शासन में हिंदुओं पर अत्याचार के क़ानून का दस्तावेज फतवा-ए-आलमगीरी तैयार किया था और आज भी उसके बनाए नफ़रती मदरसे पाकिस्तान में मदरसा-ए-रहमिया के नाम से जाने जाते हैं. जो आतंक की नर्सरी है. बाद में रंगीला शाह के वक्त हिंदुओं और ख़ासकर मराठाओं के बढ़ते प्रभाव से देवबंद का प्रेरणास्रोत शाह वलीउल्लाह इतना बेचैन था कि ज़हरीला दस्तावेज़ तैयार करना शुरू कर दिया और ऐसी-ऐसी किताबों को लेकर मदरसों में पढ़ाना शुरू किया जहां पर हिन्दुओं के ख़िलाफ़ ज़हर भरा जाता था.

शाह वलीउल्लाह ने कैसे भड़काया मुसलमानों को

अल्लाह के नाम पर शाह वलीउल्लाह हिंसक सपने और विचार अपने मानने वालों को सुनाने लगा. आम मुसलमानों को हिंदुओं ख़िलाफ़ भड़काने के लिए उसने लिखा कि उसके सपने में आया है कि वे इस्लाम के राजा दूसरे धर्म के राजा को बंधक बनाकर लाते हैं और फिर भीड़ चाकुओं से गोदकर रेत-रेतकर उसको काटते हैं और जब उसके शरीर के अंदर से खून का प्रवाह निकलता है तो इसे देखकर हमारा मालिक ख़ुश होता है और यही उसकी मर्ज़ी होती है.

तालिबान की जो तस्वीरें आप देखते हैं यह पाश्विक हरकत इसी मौलवी की सीख रही है. यह बात उसने मराठा बाजीराव के बढ़ते हुए प्रभाव को रोकने के लिए आम मुसलमानों को भड़काने के लिए लिखी थी. वह मराठियों की फ़ौज को हरामियों की फ़ौज कहता था. मुग़ल दरबार से उसने यह आदेश जारी कराने की कोशिश की कि दूसरे धर्मों के मानने वालों के धार्मिक आयोजन और उत्सव बंद किए जाएं. उसने मुसलमानों को समझाना शुरू किया कि वह दुनिया के चाहे जिस हिस्से में रहें, पहनावा और रहन सहन अरब की तरह होना चाहिए.

शाह वलीउल्लाह ही अब्दाली को हिंदुस्तान पर हमले के लिए लाया था

उस वक़्त जयपुर के राजा जयसिंह जैसे सलाहकारों और अपने नेक स्वभाव की वजह से मुग़ल बादशाह रंगीला शाह इस शाही मौलवी के नफरती विचारों पर ध्यान नहीं देता था. इसके बाद नाराज़ सनकी मौलवी ने जो किया, उसने हमेशा हमेशा के लिए हिंदुस्तान का इतिहास और भूगोल बदल कर रख दिया. इसने अफ़ग़ान के दुर्रानी शासक अहमदशाह अब्दाली को मराठों से मुक़ाबले और मुसलमानों को बचाने के लिए कंधार से बुलाया. जी हांं, बहुत कम लोग जानते हैं कि इसी शाही मौलवी वलीउल्लाह के कहने पर अफ़ग़ानी अहमद शाह अब्दाली भारत आया था और पानीपत के युद्ध में मराठों को पराजित किया था.

अहमदशाह अब्दाली को हिंदुस्तान की धरती कभी पसंद नहीं आयी थी. वह कंधार से आकर बार बार लौट जाता था मगर उसे बार बार बुलाया जाता रहा. और आख़िर में हुआ यह कि अब्दाली ने पंजाब, कश्मीर से लेकर पेशावर तक कत्लेआम किया, और उसके सेनापतियों ने इन इलाकों को मुगलों से छीनकर कंधार के शासन में मिला लिया.

हालांकि अंग्रेज़ आए तो इन इलाकों को वापस हिंदुस्तान का भाग बना दिया गया. मगर शाह वलीउल्लाह के हिंसक विचार ने इन इलाकों की फिजां में ज़हर घोल दिया था. इस वजह से आज भी इस इलाक़े में रहने वाले आम मुसलमानों को सांस लेना दूभर हो गया है और घुट-घुट कर जी रहे हैं. इस शाही मौलवी ने एक दर्जन से ज़्यादा नफ़रती दस्तावेज़ लिखे हैं जो आज भी देवबंदी और तालिबानियों के प्रेरणास्रोत बने हुए हैं.

जिहादी नफरत ने तालिबानियों को बनाया जानवर

आज़ादी की लड़ाई के दौरान भारत में रहने वाले देवबंद के मौलवी हालांकि माहौल की वजह से मज़हबी एकता के नाम पर चल रहे थे, मगर पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान की शाखाओं में शाह वलीउल्लाह ही भगवान बना हुआ था. काबुल की अशांति के लिए सऊदी अरब और पाकिस्तान ने अमेरिका के साथ मिलकर इसी मौलवी के नफ़रती दस्तावेजों को अफ़ग़ानिस्तान के छात्रों के दिलोदिमाग़ में भरना शुरू किया. गोला बारूद और तोपें तो अफ़ग़ानिस्तान के सैनिकों के पास भी है मगर वह जिहादी नफ़रत नहीं है, जो तालिबानियों में है जिसकी वजह से उनके इंसान होने और जानवर होने में फ़र्क ख़त्म हो गया है.

यही वजह है कि ज़हरीले ज्ञान की वजह से तालिबानी विवेकशून्य हो कर फिदायीन बने हुए हैं.आपको लगता होगा कि तालिबान केवल अफ़ग़ानिस्तान में शासन करना चाहता है मगर शायद आपने तालिबान के मौजूदा प्रमुख मौलवी हब्बीतुल्ला अखुंदजा के विचार नहीं सुने हैं जिसमें उसका सपना है कि इस्लाम के शासन को पूरी दुनिया में स्थापित करे. वह देवबंद के स्थापना के प्रेरणास्रोत मौलवी मुजादीद शाह वली उल्लाह देहलवी के सपने को साकार करना चाहता है. पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान में चल रहे देवबंद के यह अड्डे यही सपने लिए आज भी जी रहे हैं.

तालिबान के बारे में देवबंद के विचार चिंता का विषय हैं
भारत में देवबंद का जन्मस्थान दारूल उलूम जब यह कहता है कि वह तालिबानियों की हिंसा का समर्थन नहीं करता है मगर उनके सिविल शासन का समर्थन करता है तो हमारे लिए यह चिंता का विषय है. भारत में रहकर भारत के क़ानून से बंधे होने की वजह से वह हिंसा का समर्थन कर भी नहीं सकता है मगर तालिबान के सिविल शासन का समर्थन करता है तो फिर यह बेहद गंभीर बात है.

भारत के विभाजन के समय दारूल उलूम देवबंद की राजनीतिक पार्टी जमात-ए-उलेेेम-ए-हिन्द का विभाजन हो गया. और विभाजन के समर्थक जमाते-उलेमा-ए-इस्लाम बनाकर पाकिस्तान चले गए. वहाँ पर इन्होंने देवबंद के मदरसे शुरू किए, जिसने आतंक की ऐसी नर्सरी पैदा की है जो तालिबान के रूप में पूरी दुनिया के सामने सुरसा की तरह मुंह बाए खड़ी है.

कहा जाता है कि भारत में देवबंद देशभक्त तैयार करता है, मगर चिंता की बात हमेशा रहती है कि उनका जो फ़ाउंडेशन है वह नफ़रती विचार पर खड़ा है. जिनका प्रेरणास्रोत तो धतूरा रहा है. भारत के लोगों ने कभी भी आस्था के नाम पर भी इस बात के लिए आवाज़ नहीं उठायी कि इसका नाम देवबंद कि जगह ‘देव खुला’ होना चाहिए. मगर वक्त रहते यह कोशिश करनी चाहिए कि देवबंद में पढ़ने वाले छात्र छात्राओं का दिलोदिमाग़ खुला हो. क्योंकि दुनिया का कोई भी एटम बम एक ज़हर भरे इंसान का मुक़ाबला नहीं कर सकता है. और दुनिया की कोई भी रडार एक ज़हर भरे दिल और दिमाग़ को नहीं पकड़ सकता है.

लेखक
शरत कुमार @sharat.kumar.127201

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