विमर्श: इस्लाम की औरंगजेबी व्याख्या से नहीं चल सकता समाज, खुद मुसलमानों के हित में है समान नागरिक संहिता

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Uniform Civil Code : इस्लाम की औरंगजेबी व्याख्या से नहीं चल सकता समाज, समान नागरिक संहिता खुद मुसलमानों के हित में
Uniform Civil Code : आधा दर्जन बार सुप्रीम कोर्ट खुद समान नागरिक संहिता की बात कह चुका है, संविधान के आर्टिकल 44 तक में समान नागरिक संहिता बनाने की बात कही गई है….

शीबा असलम फहमी का विश्लेषण

Uniform Civil Code : अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के साथ कश्मीर की धारा 370 (Article 370) और समान नागरिक संहिता (Uniform Civil Code) जैसे कोर मुद्दों को अपनी राजनीति की मुख्य धुरी बना चुकी भारतीय जनता पार्टी (BJP) राम मंदिर (Ram Temple) और 370 जैसे मुद्दों को हल करने के बाद धीरे-धीरे समान नागरिक संहिता के मुद्दे पर कदम आगे बढ़ा रही है।

मजबूत राजनैतिक इच्छाशक्ति के चलते दोनो मुद्दों को हल करने वाली नरेन्द्र मोदी सरकार (Narendra Modi Govt) ने विभिन्न राज्य सरकारों के माध्यम से संकेत देना शुरू कर दिया है कि वह अब समान नागरिक संहिता के मुद्दे को हल करने के लिए कटिबद्ध है। इसको लेकर मीडिया में बहस का दौर शुरू हो चुका है। जिसके माध्यम से इसे भारतीय मुसलमानों (Indian Muslims) के बड़े नुकसान के तौर पर चित्रित किया जा रहा है। खुद मुसलमानों के धर्मगुरु के तौर पर इन बहसबाजियों में शामिल होने वाले पांच हजारी मौलाना इस मुद्दे को ऐसे पेश कर रहे हैं, जैसे यह मुस्लिम समाज के लिए न जाने कितना नुकसानदेह साबित हो सकता है।

समान नागरिक संहिता (Uniform Civil Code) का मुद्दा दोबारा बाहर आया है और इसके सामने आते ही मुस्लिम समाज में वही प्रतिक्रिया होने लगी जिसके बारे में मुद्दा उठाने वाले जानते हैं कि ऐसा ही होगा। वैसे देखा जाए तो जिस समान नागरिक संहिता की बात सुनकर ही मुस्लिम समाज में जो चिर परिचित प्रत्याशित व्यवहार देखने को मिल रहा है, उसमें ऐसा कुछ खास होने वाला है नहीं, जो पहले से न हो। सारे प्रावधान पहले ही अध्यादेश की शक्ल में या समय-समय पर दिए गए सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों के बाद पहले से ही बिना बहस के लागू हैं।

आधा दर्जन बार सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court Of India) खुद समान नागरिक संहिता की बात कह चुका है। संविधान के आर्टिकल 44 तक में समान नागरिक संहिता बनाने की बात कही गई है। आजादी के बाद देश की बहुसंख्यक हिन्दू आबादी (Majority Hindu Population) के लिए तमाम सुधार हो चुके हैं जिससे हिंदू समाज को लाभ हुआ है। जबकि मुसलमानों के मामले में ऐसा नहीं हो पाया। मुसलमानों की यथास्थितिवादी, पुरातनपंथी और तथाकथित नामधारी कुछ संस्थाएं इस अवरोध की जिम्मेदार हैं। लेकिन बदलते समय के दौर में भारत का मुसलमान औरंगजेबी सोच की फतवा आलमगिरी वाली इस्लामी व्याख्या के साथ नहीं चल सकता।

सच्चर कमेटी की रिपोर्ट (Sachar Committie Report) में भी मुसलमानों (Muslims) की हालत देश के दलितों से भी गई-गुजरी बताई गई है तो उसके पीछे मुसलमानों का इसी कट्टरवादी सोच के पीछे आंखे बंद करके चलना ही मुख्य वजह है। आम मुसलमानों को इस सोच से आगे निकलने होगा। मौलवियों को भी अपनी सोच बदलनी होगी। आप समझ लीजिए कि मध्ययुगीन तौर तरीके आपको अब हर हाल में छोड़ने ही होंगे। स्वेच्छा से या कानून के खौफ से, यह आपको तय करना है। जैसे ‘पति द्वारा अपनी पत्नी को पीटने’ को कुरान की रोशनी में जायज बताते हुए घरेलू हिंसा (Domestic Violence) को जायज बताने वाले मौलवी घरेलू हिंसा कानून आने के बाद से इस पर अब चुप्पी साध लेते हैं।

देश की बढ़ती जनसंख्या (Population Growth) एक बड़ा मुद्दा है जिससे निम्न मध्यमवर्गीय तबका बुरी तरह प्रभावित है। लेकिन टीवी पर मुस्लिम मौलाना परिवार नियोजन का ऐसा विरोध करते हैं कि बढ़ती आबादी का सारा कलंक मुसलमानों के मत्थे आ जाता है। देश का नेरेटिव अगर ऐसे सेट हुआ है कि जनसंख्या के पीछे मुसलमानों का योगदान है तो इसके पीछे भी मुस्लिम धर्मगुरुओं का ही हाथ है। जबकि परिवार नियोजन इस्लाम विरोधी नहीं मुस्लिम समाज के ही हित में है। इसका पहला लाभ उसी परिवार को मिलेगा जो इसे अपनाएगा। अच्छी शिक्षा, अच्छा स्वास्थ्य, बेहतर जिंदगी छोटे परिवार में ही मिल सकती है।

समान नागरिक संहिता में भी कोई नुकसान नहीं है लेकिन मुस्लिम धर्मगुरु अपनी अकड़ में पूरे देश के मुसलमानों की स्थिति को हास्यपद बनाने पर आमादा हैं। अफसोस की बात यह है कि तीस साल पहले शाहबानो केस के दौर में जो प्रगतिशील, नारीवादी लोग मुस्लिम समाज की महिलाओं के हित में आवाज उठाते थे, वह भी अब अपने सुर बदलने लगे हैं। तीन तलाक मामले में भी मौलवी ऐसे ही अड़ रहे थे कि सुधार की कोई जरूरत नहीं है। हम इसे जारी रखेंगे लेकिन जैसे ही इसे अपराधिक प्रावधान से जोड़ा गया वैसे ही तीन तलाक के मामलों में नब्बे फीसदी तक कमी आ गई।

जिसका साफ मतलब है कि आप अपना एकतरफा विशेष अधिकार जो कि पहले तो आपके पास होना ही नहीं चाहिए था, लेकिन अगर पुरातन दौर में आपने वह जबरन हासिल कर भी लिया है तो उसे आप स्वेच्छा से छोड़ने को तैयार नहीं हैं। लेकिन यदि आपको खौफ दिखाया जायेगा, जेल जाने का डर होगा तो ही आप उसको मजबूरी में स्वीकार करेंगे।
रमजान के महीना में देखिए तमाम ऐसी परित्यकताएं मुस्लिम महिलाएं जकात-भीख मांगकर अपने उन बच्चों को पाल रहीं हैं, जिन्हे उनका पति दूसरी-तीसरी शादी के चक्कर में छोड़कर चला गया है। ऐसे पतियों के आंकड़े मुसलमानों की खैरख्वाह बनने वाली संस्थाओं तक के पास नहीं हैं जिससे ऐसी औरतों की सही संख्या किसी को पता चले। इसी वजह से ‘चार शादी-चालीस बच्चे’ जैसे जुमले उन मुसलमानों को भी सुनने को मिलते हैं, जो इसमें लिप्त नहीं हैं।

अगर कानून के डंडे की वजह से ही इस पर रोक लगेगी तो खुद सोचिए भला किसका होगा ? हर शादी-तलाक यदि विधिवत रजिस्टर्ड हो तो इससे आम मुसलमान को कोई नुकसान नहीं है। इसका नुकसान सीधे धार्मिक दुकानें चलाने वाले कट्टरपंथियों को होगा। उनकी यह दुकानें बंद हो जाएंगी जिनकी अब कोई जरूरत है ही नही। भारत के मुसलमानों को समझना चाहिए कि मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड उनके लिए कोई जरूरी नहीं, बल्कि उनकी खुशहाली के रास्ते में दीवार बनकर खड़ा है। दुनिया इस स्तर पर पहुंच चुकी है कि अब किसी काजी या मुफ्ती के न्याय के भरोसे आगे नहीं बढ़ा जा सकता। अब केवल कानून के भरोसे ही आगे जाना होगा।

बच्चों को गोद लेने का जो सवाल है, उसके भी सारे प्रावधान अब जुवेनाइल जस्टिस एक्ट 2016 में हैं। भारतीय मुसलमान मर्द केवल एक पति के तौर पर सोचने के बजाय यदि एक भाई या पिता के नजरिए से सोचे तो उन्हें ना सिर्फ खुद समान नागरिक संहिता की इस पहल का स्वागत करना चाहिए बल्कि इसे अपने समाज के सुधार के लिए खुद ही लागू करना चाहिए। यह आपकी मां, बहन और बेटियों को न केवल न्याय दिलाने की कवायद है बल्कि उस सामाजिक सुरक्षा का दस्तावेज है, जो बहुत पहले आना चाहिए था।

पंडित नेहरू और डॉक्टर अम्बेडकर इस मलाल के साथ दुनिया से रुख़सत हुए कि वो अपनी मुसलमान बहनों को बेहतर सामाजिक व्यवस्था नहीं दे सके। ये रुका हुआ काम अब हो जाए तो भी गनीमत है।

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