ज्ञान:आद्य शंकराचार्य का सही काल निर्धारण 509 ईसा पूर्व

आदि शङ्कराचार्य काल

सभी मतों की समीक्षा इस ग्रन्थ में है- Śankara-Vijayas, by Dr. W. R. Antarakar, published by Veda Sastra Pandita Raksha Sabha, Mumbai-22, 2003.
१. सनातन परम्परा में आदि शङ्कर-कूर्म पुराण में २८ व्यासों को शिव का अवतार कहा गया है। ज्ञान के मूल स्रोत शिव हैं जिनसे गुरु परम्परा आरम्भ होती है, तथा सभी स्रोत उनके अवतार हैं। स्वयं शङ्कराचार्य ने मठाम्नाय सेतु में कहा है-
कृते विश्वगुरुर्ब्रह्मा त्रेतायामृषिसत्तमः। द्वापरे व्यास एव स्यात् कलावत्र भवाम्यहम्॥६४॥
= सत्य युग में ब्रह्मा विश्व गुरु थे, त्रेता में वसिष्ठ (ऋषि-श्रेष्ठ), द्वापर में व्यास, तथा कलि युग में मैं (शङ्कर)।
महाभारत, शान्ति पर्व अध्याय ३४८-३४९ में मनुष्य रूप ७ ब्रह्मा का वर्णन किया है। इनमें वाणी-पुत्र अपान्तरतमा (नवम व्यास) भी एक हैं जिनका अवतार कृष्णद्वैपायन व्यास को कहा है (शान्ति पर्व, ३४९/३९, ५८, ५९)।
विष्णु पुराण (३/३/९-२०) में सभी २८ व्यासों के समय को द्वापर ही कहा गया है। वसिष्ठ ८वें ब्रह्मा थे। ऋग्वेद (९/९७/१-३०, तथा ७/३२,३३) सूक्तों में १२ वसिष्ठों का ऋषि रूप में उल्लेख है। इसी प्रकार परशुराम, विश्वामित्र, भरद्वाज की परम्परा थी। वर्तमान काल में आदि शङ्कराचार्य से उनके ४ पीठों में शङ्कराचार्य की परम्परा चल रही है और मठाम्नाय सेतु (५१) के अनुसार सभी पीठाधीशों को शङ्कराचार्य ही कहा जाता है।
बौद्ध प्रभाव के कारण जब भारत में वर्णाश्रम धर्म का ह्रास हुआ तो उसकी पुनः प्रतिष्ठा के लिए शङ्कराचार्य का अवतार हुआ।
२. वेदान्त परम्परा-वेदव्यास ब्रह्म सूत्र के प्रथम कर्त्ता नहीं थे। उन्होंने कई पूर्व आचार्यों का उल्लेख ब्रह्म सूत्र में किया है-जैमिनि (१/२/२८,३१, १/३/३१, १/४/१८, ३/२/४०, ३/४/२-७, ३/४/१८, ४०, ४/३/१३, ४/४/५,११), औडुलोमि (१/४/२१, ३/४/४५, ४/४/६), काशकृत्स्न (१/४/२२), आत्रेय (३/४/४४), आश्मरथ्य (१/२/२९, १/४/२०), कार्ष्णजिनि (३/१/९)।
वेदान्त दर्शन की ४ प्राचीन परम्परा वर्णित है-
(१) श्री सम्प्रदाय जिसकी आद्य प्रवर्तिका विष्णुपत्नी महालक्ष्मी और प्रमुख आचार्य रामानुजाचार्य हैं। इन्होंने अपना आधार बौधायन वृत्ति को कहा है।
(२) ब्रह्म सम्प्रदाय जिसके आद्य प्रवर्तक चतुरानन ब्रह्मादेव और प्रमुख आचार्य मध्वाचार्य हुए।
(३) रुद्र सम्प्रदाय जिसके आद्य प्रवर्तक देवाधिदेव महादेव और प्रमुख आचार्य वल्लभाचार्य हुए जो वर्तमान में वल्लभसम्प्रदाय के नाम से जाना जाता है।
(४) कुमार संप्रदाय जिसके आद्य प्रवर्तक सनकादि ४ ब्रह्मपुत्र हैं और प्रमुख आचार्य निम्बार्काचार्य हुए। परम्परा से इनको कलियुग के कुछ बाद का कहते हैं।
ब्रह्म (माध्व) संप्रदाय के अंतर्गत ब्रह्ममाध्वगौड़ेश्वर (गौड़ीय) संप्रदाय जिसके प्रवर्तक आचार्य महाप्रभु चैतन्यदेव हुए और श्री (रामानुज) संप्रदाय के अंतर्गत रामानंदी संप्रदाय जिसके प्रवर्तक आचार्य श्रीरामानंदाचार्य हुए।
मध्वाचार्य के द्वैत का यह अर्थ नहीं है कि वह ब्रह्म को २ मानते हैं। वैज्ञानिक व्याख्या के लिए इनका अलग अलग वर्णन आवश्यक है। इसी प्रकार शंकराचार्य तथा रामानुजाचार्य में कोई विरोध नहीं है। रामानुज सम्प्रदाय के मठों में प्रथम लक्ष्मी-नृसिंह स्तोत्र पढ़ा जाता है, जो शंकराचार्य का लिखा है। अन्तर यही है कि शंकराचार्य ने निर्विशेष ब्रह्म की व्याख्या की है, रामानुजाचार्य ने विशिष्ट रूपों की भी व्याख्या की है। इन दो का निर्देश शुकदेव जी ने गजेन्द्र मोक्ष स्तुति के बाद किया है-
एवं गजेन्द्रमुपवर्णित निर्विशेषं ब्रह्मादयो विविधलिङ्गभिदाभिमानाः। (भागवत पुराण, ८/३/३०)
निर्विशेष का वर्णन नहीं हो सकता, अतः उसका उपवर्णन है। ब्रह्मा आदि लिङ्ग (बाह्य रूप) अभिमानी देव ब्रह्म के विशिष्ट रूप हैं, जिनमें वही मूल ब्रह्म है-तत् सृष्ट्वा तदेव अनुप्राविशत् (तैत्तिरीय उपनिषद्, २/६/४)। विशिष्ट में अद्वैत की व्याख्या के लिए कुछ अलग शब्दों, परिभाषाओं की जरूरत हुई, इसलिए भेद है।
३. अद्वैत प्रति भ्रम-शङ्कराचार्य के निर्विशेष अद्वैत के बारे में लोगों की धारणा है कि वे मूर्ति पूजा के विरोधी थे। अंग्रेजों की दृष्टि में उनको महान् बताने के लिए उनको मूर्ति पूजा विरोधी बताया जाता है। पर इन लोगों ने अपना देश कभी नहीं देखा-पश्यन्नपि च न पश्यति लोको, ह्युदर निमित्तं बहुकृत शोकः। भारत के हर भाग में जो भी तथा-कथित मूर्ति पूजा होती है, उसमें शङ्कराचार्य के स्तोत्र का ही व्यवहार होता है-जगन्नाथाष्टक, विश्वनाथाष्टक, विट्ठल स्तोत्र, हरिहर स्तोत्र, शिव पञ्चाक्षर स्तोत्र, देवी अपराध क्षमापन स्तोत्र, लक्ष्मी नृसिंह स्तोत्र। मूर्ति पूजा नहीं होती, वह विश्व का रूप है जिसके माध्य से बाह्य विश्व तथा आत्मिक विश्व में उस देव तत्त्व की कल्पना होती है। विश्व निराकार नहीं है, उसका चेतन तत्त्व निराकार है। गीता की भाषा में क्षर पुरुष मूर्त्त है, अक्षर पुरुष के ३ रूप-अक्षर, अव्यय, परात्पर निराकार हैं।
एक अन्य प्रचार है कि शङ्कराचार्य ने जगत् को मिथ्या बता कर लोगों को कर्म से विमुख कर दिया। पर सत्य के कई स्तर हैं, एक प्रकार से ३ भेद अन्य प्रकार से ७ भेद हैं जिनका निर्देश अथर्ववेद के प्रथम मन्त्र में है- ये त्रिषप्ताः परियन्ति विश्वा रूपाणि बिभ्रतः।
पुरुष सूक्त में भी है- सप्तास्यासन् परिधयस्त्रिः सप्त समिधः कृताः। (वाज.यजु, ३१/१५)
ब्रह्मा ने भगवान् कृष्ण की स्तुति इसी रूप में की है-
सत्यव्रतं सत्यपरं त्रिसत्यं सत्यस्य योनिं निहितं च सत्ये। (भागवत पुराण, १०/२/२६)
सत्यस्य सत्यं ऋतसत्यनेत्रं सत्यात्मकं त्वां शरणं प्रपद्ये॥
ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या के कई अर्थ हैं-(१) जैसा नाम वैसा रूप या गुण नहीं है, (२) ब्रह्म आधार सत्य है, जगत् उसका परिणाम है, (३) दृश्य रूप क्षर पुरुष है, चेतन तत्त्व अक्षर या स्थायी है।
४. शङ्कराचार्य काल में भ्रम-अंग्रेजी शासन में इनके काल के विषय में कई भ्रम उत्पन्न किए गये हैं जो वास्तविक नहीं हैं। गणना में भूल के कई कारण हैं-
(१) शक और संवत् का अर्थ नहीं समझना-युधिष्ठिर, नन्द, शूद्रक, चाहमान, शालिवाहन आदि के वर्ष शक थे, कोई भी शक-कर्ता शक जाति का नहीं था।
(२) युधिष्ठिर काल में ४ प्रकार की वर्ष गणना है-(क) अभिषेक काल १७-२-३१३९ ईपू. से, (ख) कलि संवत् १७-२-३१०२ ईपू. से, (ग) परीक्षित अभिषेक से जयाभ्युदय शक २५-८-३१०२ ईपू से, (घ) युधिष्ठिर देहान्त के बाद २५ कलिवर्ष या ३०७७ ईपू.से लौकिक या सप्तर्षि वर्ष।
(३) इसके अतिरिक्त जैन युधिष्ठिर शक २६३४ ईपू से आरम्भ हुआ, जब सरस्वती सूख गयी तथा गंगा की बाढ़ में हस्तिनापुर डूब गया। उस समय काशी के राजा ने पार्श्वनाथ नाम से संन्यास लिया।
(४) राजतरंगिणी में स्पष्ट कहा है कि श्रीहर्ष उपनाम विक्रमादित्य ने ५ वर्ष के लिए अपने कवि मातृगुप्त को कश्मीर का राजा बनाया था। उसके ४०० वर्ष बाद उज्जैन में परमार वंशी विक्रमादित्य हुए। श्रीहर्ष काल में आदिशंकर हुए तथा उनके गुरु गोविन्दपाद को कथा सरित्सागर में श्रीहर्ष से सम्बन्धित कहा गया है। इनको विक्रमादित्य काल में मान लिया जाता है।
(५) सभी शङ्कर पीठों के स्वामी को शङ्कराचार्य ही कहते हैं। उनमें अभिनव शङ्कराचार्य ७८८ ई. में हुए थे, पर उनका देहान्त ३२ वर्ष की आयु में नहीं हुआ था, जैसा देवी अपराध क्षमापन स्तोत्र में कहा है-मया पञ्चाशीतेरधिकमपनीते तु वयसि।
कुम्भकोणम् मठ के अनुसार काञ्ची पीठ में ही कई शंकर थे। श्री गोपीनाथ कविराज की पुस्तक भारतीय साधना की धारा, पृष्ठ १५४ पर भी-
(१) आद्य या कालटी शंकर (५०९-४७६ ईपू)-प्रस्थानत्रयी, विष्णु सहस्रनाम भाष्य।
(२) कृपाशंकर २६-६९ ई. षष्ठ आचार्य, षण्मत स्थापनाचार्य-गाणपत्य, सुब्रह्मण्य, शाक्त, वैष्णव, सौर।
(३) उज्ज्वल शंकर, १६वें आचार्य (३२९-३६७ ई.)-केरल राजा कुलशेखर के शिष्य
(४) मूकशंकर, १८वें या २०वें आचार्य-३९८ से ४३९ ई.।
(५) अभिनव विद्याशंकर तीर्थ, धीर शंकर या चिदम्बर शंकर-७८८ ई. में जन्म। आनन्द गिरीय दिग्विजय में जीवनी, गुरुरत्नमाला की सुषमा टीका, पुण्यश्लोकमञ्जरी, आदिशंकराचार्य अभ्युदय, पतञ्जलि चरितम् आदि में इनका वर्णन। यह भगवान् शंकर के ५ चन्द्रमौलीश्वर लिङ्ग लाये थे।
इन भूलों के साथ गणना कर अपनी विद्वत्ता दिखाने से अच्छा है कि व्यक्ति के बदले उस काल का इतिहास देखा जाय। भारत में हिन्दी, मराठी, बंगला, ओड़िया आदि से बीए करने वाले प्रायः इतिहास को अतिरिक्त विषय रखते हैं। भाषा-साहित्य के इतिहास में पढ़ते हैं कि अष्टम सदी में मुस्लिम आक्रमण से देश की रक्षा के लिए गोरखनाथ ने ४ पीठ स्थापित किए तथा लोकभाषा में साहित्य प्रचलित किया। वे सभी छात्र इतिहास पुस्तकों में पढ़ते हैं कि उसी काल में शंकराचार्य ने अन्य ४ पीठ स्थापित कर पूरे भारत में संस्कृत में शास्त्रार्थ किया। पश्चिम भारत में मुस्लिम अधिकार हो गया था जो केवल तलवार से बात करते थे। बिना काल क्रम ठीक किए इतिहास नहीं जान सकते। आठवीं सदी में मुस्लिम आक्रमण के समय बौद्ध विरोध का औचित्य नहीं था। पाकिस्तान आक्रमण के जबाब में दलाई लामा पर आक्रमण नहीं हो सकता है।
५. कालगणना- आदि शंकर के सहपाठी चित्सुखाचार्य का बृहत् शंकर दिग्विजय सबसे प्रामाणिक है। इसके अनुसार-
तिष्ये (कलौ) प्रयात्यनल-शेवधि-बाण-नेत्रे (२५९३) ऽब्दे नन्दने दिनमणावुदगध्वभजि।
राधे (वैशाखे) ऽदितेरुडु (पुनर्वसु नक्षत्रे) विनिर्गत मङ्ग (धनु) लग्नेऽस्याहूतवान् शिवगुरुः (पिता) स च शङ्करेति॥
दिनमणावुदगध्वभाजि का अर्थ है सूर्य उदग् = उत्तर मार्ग के उत्तर भाग में हैं। उदग अध्व का अर्थ मध्याह्न मान कर उनका मध्याह्न जन्म बाद के लेखकों ने मान लिया, किन्तु बाकी काल वही रखा। कलि संवत् २५९३ के बदले युधिष्ठिर शक २६३१ लिखा है। द्वारका पीठ के द्वितीय शंकराचार्य लिखित शंकर दिग्विजय में-
ततः सा दशमे मासि सम्पूर्ण शुभलक्षणे। षड्विंशशतके श्रीमद् युधिष्ठिर शकस्य वै॥
एकत्रिंशेऽथ वर्षे तु हायने नन्दने शुभे मेषराशिं गते सूर्ये वैशाखे मासि शोभने॥
शुक्ले पक्षे (च) पञ्चम्यां तिथौ भास्कर वासरे।पुनर्वसु गते चन्द्रे (सु) लग्ने कर्कटाह्वये॥
मध्याह्ने चाभिजिन्नाम मुहूर्ते शुभवीक्षिते। स्वोच्चस्थे केन्द्रस्थे च गुरौ मन्दे कुजे रवौ॥
निजतुङ्गगते (शुक्रे) रविणा संगते बुधे। प्रासूत तनयं साध्वी गिरिजेव षडाननम्॥
दोनों लेखों के अनुसार शङ्कराचार्य का जन्म नन्दन वर्ष में ही हुआ था। दक्षिण भारत में पितामह सिद्धान्त पद्धति से कलियुग का आरम्भ १३ वें प्रमाथी वर्ष से हुआ था\ इसमें सौर वर्ष को ही गुरु वर्ष मानते हैं, अतः ६० वर्षों के ४३ चक्र ६० x ४३ = २५८० कलि वर्ष में पूरे हुए। उसके १३ वर्ष बाद २५९३ कलि या ५०९ ई.पू. में ही नन्दन वर्ष होगा। ७८८ ई. में ३८८९ कलि वर्ष होगा जिसमें ६४ चक्र पूरा हो कर ४९ वर्ष बचेंगे, अर्थात् १३वें प्रमाथी के ४९ वर्ष बाद द्वितीय विभव वर्ष होगा।
मूल धनुष लग्न के अनुसार मैंने कन्नु पिल्लै के २००० वर्षीय पञ्चाङ्ग से गणना की तथा प्राणपद लग्न के अनुसार जन्म समय का संशोधन किया। यह सूर्य सिद्धान्त अनुसार गणना है।
जन्म स्थान-केरल के पूर्णा नदी तट पर, १०अं ४०’ उत्तर, ७६ अं पूर्व।
४-४-५०९ ई.पू. मंगलवार, २२५२ बजे, प्राणपद लग्न के अनुसार।
सौर वर्ष का आरम्भ ९.५३४८ मार्च ५०९ ई.पू. (९ मार्च उज्जैन मध्य सूर्योदय ६ बजे के ०.५३४८ दिन बाद), वैशाख शुक्ल १ का आरम्भ मार्च २०.७६२३४ को।
वैशाख शुक्ल पञ्चमी ३-४-५०९ ई.पू. ०९३४ बजे से, ४-४-५०९ ई. पू. ११३२ तक।
पुनर्वसु नक्षत्र ४-४-५०९ ई.पू. ०१३९ से ५-४-५०९, ०४०६ तक।
अहर्गण-सृष्टि ७,१४,४०,३२,४३,९६३ (रविवार =१), जुलियन १-१-४७१३ से (मंगलवार = १) १५,३५,६०५, कलि (गुरु वार =१)-९,४७,१४७।
४-४-५०९ ई.पू. को कालटी में सूर्योदय ६-२७-३७ बजे भारतीय समय।
२२५२ बजे-लग्न ८-२१ अं -२४’, प्राणपद लग्न ८-२१ अं -२३’ , दशम भाव ५-२६ अं -४३’।
अयनांश = -१० अं ५८’९”, सूर्य सिद्धान्त से = -१६ अं ५०’।
ग्रह मध्य (अंश) स्पष्ट मन्दोच्च
सूर्य २३.६२ २५.३८ —
चन्द्र —- ९०.६८ —
मंगल २७०.४८ ३०५.१९ १३०.०२
बुध १२८.६३ ४४.३४ २२०.३९
गुरु २४४.५३ २४७.४५ १७१.१८
शुक्र १७८.५१ ६७.५३ ७९.७८
शनि ३४६.४१ ३४३.२२ २३६.६२
राहु ३१.४७ —- —-
इस कुण्डली के अनुसार उनके बालारिष्ट तथा चक्रवर्त्ती संन्यासी का योग भी बनता है।
६. मुख्य घटनाओं का काल-श्री स्वामी शिवबोधाश्रम जी महाराज जी द्वारा रचित ग्रँथ गुरुवंश पुराण के अनुसार आदि शंकर के जीवन की घटनाओं का कालक्रम युधिष्ठिर शक में है-
युधिष्ठिर संवत २६३१ वैशाख शुक्ल पंचमी-श्री शंकराचार्य जी का अवतार।
२६३९ चैत्र शुक्ल नवमी- उपनयन।
२६३९ कार्तिक शुक्ल एकादशी – सन्यास।
२६४० फाल्गुन शुक्ल द्वितीय से – श्री गोविंद भगवत्पादचार्य जी द्वारा उपदेश । (बद्रिकाश्रम में)
२६४६ ज्येष्ठ कृष्ण पूर्णिमा तक – ब्रह्मसूत्र, गीता तथा ईशावास्योपनिषद से लेकर छोन्दोग्योपनिषद, बृहदारण्यकोपनिषद, सनत्सुजातीय दर्शन, विष्णु सहस्रनाम, ललिता त्रिशती आदि पर भाष्य रचना की।
वहीं पर व्यास जी का दर्शन तथा उनसे शास्त्रार्थ। भरत खण्ड की यात्रा तथा पद्मपादाचार्य जी की प्राप्ति, बद्रीनारायण की प्रतिष्ठा तथा ज्योतिर्मठ का निर्माण।
२६४७ मार्गशीर्ष कृष्ण द्वितीय- मण्डन मिश्र के साथ सरस्वती की मध्यस्थता में शास्त्रार्थ।
२६४७ कार्तिक शुक्ल अष्टमी- भगवान वेदव्यास जी से वाराणसी में शास्त्रार्थ तथा सनन्दन की शरणागति।
२६४८ चैत्र शुक्ल चतुर्थी – मण्डन की पराजय। ( तीन महीने सत्रह दिन तक शास्त्रार्थ चला)
२६४८ चैत्र शुक्ल षष्ठी – सरस्वती (उभय भारती) का काम कला सम्बन्धी प्रश्न।
२६४८ चैत्र शुक्ल अष्टमी – आचार्य का परकाय प्रवेश। (छह महीने बीस दिन परकाया में रहे)
२६४८ कार्तिक शुक्ल त्रयोदशी – आचार्य का पुनः अपने शरीर में प्रवेश।
२६४८ कार्तिक कृष्ण प्रतिपदा – आकाश मार्ग से ब्रह्मलोक को जाती हुई सरस्वती को आचार्य ने चिंतामणि मन्त्र से द्वारका में आकर्षित किया।
२६४८ कार्तिक कृष्ण पंचमी – शारदा मन्दिर में शारदा की स्थापना।
२६४८ कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी से – द्वारका में शारदा मठ का निर्माण, बौद्धादिकों का पराजय ।
२६४८ माघ शुक्ल दशमी तक – रुद्र मालाकार द्वारा भगवान श्रीकृष्ण की यादवेंद्र मूर्ति की चांदी के मंदिर में प्रतिष्ठा, शंकर के शिद्धेश्वर मंदिर का निर्माण, भद्रकाली यंत्र का उद्धार।
२६४८ कार्तिक शुक्ल नवमी— श्रृंगेरी मठ का निर्माण आरम्भ।
२६४९ चैत्र शुक्ल नवमी – मण्डन मिश्र को सन्यास देकर सुरेश्वचार्य योगपट्ट दिया।
२६४९ मार्गशीर्ष शुक्ल दशमी—- सुधन्वा की दीक्षा
२६४९ मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी– श्री सुरेश्वचार्य का द्वारका शारदा पीठ पर अभिषेक।
२६५० वैशाख शुक्ल तृतीया – दिग्विजय यात्रा महोत्सव।
२६५३ श्रावण शुक्ल सप्तमी – त्रोटकाचार्य का सन्यास
२६५४ आषाढ शुक्ल एकादशी – हस्तामलकाचार्य का सन्यास।
२६५४ वैशाख शुक्ल दशमी – दिग्विजय यात्रा में ही पुरुषोत्तम क्षेत्र जगन्नाथपुरी में गमन, जगन्नाथ भगवान की काष्ठ मूर्ति की स्थापना, गोवर्धन मठ का निर्माण तथा पद्मपादाचार्य का अभिषेक।
२६५५ भाद्रपद की अमावस्या से लेकर २६६२ पौष कृष्ण पूर्णिमा तक – अविच्छिन्न गति से दिग्विजय यात्रा में बौद्घ आदि ११३२ मत-मतान्तरों के आचार्यो पर विजय तथा सुधन्वा आदि धार्मिक राजाओं द्वारा अनादिकालीन वर्णाश्रम धर्म व्यवस्थानुसार राज्य करना। भूलोक का उद्धार करते हुए कश्मीर मण्डल में शारदा भगवती के सर्वज्ञासन पर आसीन होकर शास्त्रार्थ करना।
२६६३ कार्तिक पूर्णिमा – देवताओं के प्रार्थना करने पर उसी शरीर से विमान पर बैठकर कैलाश गमन।
७. पूर्ववर्त्ती महापुरुष-अंग्रेजों ने बुद्ध का समय ५६३-४८३ ई.पू कर दिया है। उनको इससे कोई मतलब नहीं कि वे किस बुद्ध के बारे में कह रहे हैं। स्तूपवंश में २८ बुद्धों की सूची दी हुई है। उसके बाद सिद्धार्थ बुद्ध की प्रशंसा की है कि उन्होंने अपने उपदेश लिखित रूप में रखे अतः वे सुरक्षित रहे-
अतीत बुद्धानं जिनानं देसितं। निकीलितं बुद्ध परम्परागतं।
पुब्बे निवासा निगताय बुद्धिया। पकासमी लोकहितं सदेवके॥
अन्य ४ बुद्ध थे-विपश्यि, शिखि, विश्वभू, तिष्य-जिनकी शिक्षा लिखित उपदेश के अभाव में नष्ट हो गयी।
इन ३ बुद्धों के ३ दर्शन मार्ग थे-वैभाषिक, सौत्रान्तिक, योगाचार। सिद्धार्थ बुद्ध द्वारा चतुर्थ माध्यमिक दर्शन आरम्भ हुआ।
क्रकुच्छन्द बुद्ध श्रावस्ती से १०० कि.मी दक्षिण-पश्चिम, कनकमुनि श्रावस्ती से ८ कि.मी. उत्तर तथा कश्यप बुद्ध (द्वितीय कश्यप) श्रावस्ती से १५ कि.मी. पश्चिम टण्डवा ग्राम में हुये थे। इनके पीठ हैं-चम्पा (भागलपुर, बिहार), साकेत (अयोध्या), सारनाथ (वाराणसी के निकट)। सारनाथ के पास निगलिहवा शिलालेख में अशोक ने लिखा है कि अपने शासन के १४वें वर्ष में उसने कोणगमन (कनकमुनि) के स्तूप (सारनाथ में) को दुगुना कर दिया तथा पुनः २० वें वर्ष में वहां गया। आचार्य नरेन्द्रदेव की पुस्तक बौद्ध धर्म-दर्शन में कई बुद्धों के कामों का वर्णन है-दीपंकर बुद्ध द्वारा लामा परम्परा आरम्भ की, मैत्रेय बुद्ध, शाक्यमुनि-शाक्यसिंह, सुमेधा, अमिताभ आदि का वर्णन किया है। तीन मुख्य बुद्धों का काल दिया जाता है-
(१) सिद्धार्थ बुद्ध-जन्म ३१-३-१८८६ ईसा पूर्व, शुक्रवार, वैशाख शुक्ल १५ (पूर्णिमा), ५९-२४ घटी तक। कपिलवस्तु के लिये प्रस्थान २९-५-१८५९ ईसा पूर्व, रविवार, आषाढ़ शुक्ल १५। बुद्धत्व प्राप्ति ३-४-१८५१ ईसा पूर्व, वैशाख पूर्णिमा सूर्योदय से ११ घटी पूर्व तक। शुद्धोदन का देहान्त २५-६-१८४८ ईसा पूर्व, शनिवार, श्रावण पूर्णिमा। बुद्ध निर्वाण २७-३-१८०७ ईसा पूर्व, मंगलवार, वैशाख पूर्णिमा, सूर्योदय से कुछ पूर्व। इनकी जन्म कुण्डली-लग्न ३-१अं-२’, सूर्य ०-४ अं -५४’, चन्द्र ६-२८ अं-६’, मंगल ११-२८ अं -२४’, बुध ११-१० अं -३०’, गुरु ५-८ अं -१२’, शुक्र ०-२३ अं -२४’, शनि १-१६ अं -४८’, राहु २-१५ अं -३८’, केतु ८-१५ अं -३८’। ये सभी तिथि-नक्षत्र-वार बुद्ध की जीवनी से हैं।
(२) गौतम बुद्ध-सामान्यतः ४८३ ईसा पूर्व में जिस बुद्ध का निर्वाण कहा जाता है, वह यही बुद्ध हैं जिनका काल कलि की २७ वीं शताब्दी (५०० ईसा पूर्व से आरम्भ) है। इन्होंने गौतम के न्याय दर्शन के तर्क द्वारा अन्य मतों का खण्डन किया तथा वैदिक मार्ग के उन्मूलन के लिये तीर्थों में यन्त्र स्थापित किये। गौतम मार्ग के कारण इनको गौतम बुद्ध कहा गया, जो इनका मूल नाम भी हो सकता है। स्वयं सिद्धार्थ बुद्ध ने कहा था कि उनका मार्ग १००० वर्षों तक चलेगा पर मठों में स्त्रियों के प्रवेश के बाद कहा कि यह ५०० वर्षों तक ही चलेगा। गौतम बुद्ध के काल में मुख्य धारा से द्वेष के कारण तथा सिद्धार्थ द्वारा दृष्ट दुराचारों के कारण इसका प्रचार शंकराचार्य (५०९-४७६ ईसा पूर्व) में कम हो गया। चीन में भी इसी काल में कन्फ्युशस तथा लाओत्से ने सुधार किये।
(भविष्य पुराण, प्रतिसर्ग पर्व ३, अध्याय २१-सप्तविंशच्छते भूमौ कलौ सम्वत्सरे गते॥२१॥ शाक्यसिंह गुरुर्गेयो बहु माया प्रवर्तकः॥३॥ स नाम्ना गौतमाचार्यो दैत्य पक्षविवर्धकः। सर्वतीर्थेषु तेनैव यन्त्राणि स्थापितानि वै॥ ३१॥
(४) विष्णु अवतार बुद्ध २००० कलि के कुछ बाद मगध (कीकट) में अजिन ब्राह्मण के पुत्र रूप में उत्पन्न हुये। ये २८ बुद्धों में नहीं थे, विष्णु अवतार बुद्ध थे। दैत्यों का विनाश इन्होंने ही किया, सिद्धार्थ तथा गौतम मुख्यतः वेद मार्ग के विनाश में तत्पर थे। इसका मुख्य कारण था प्रायः ८०० ईसा पूर्व में असीरिया में असुर बनिपाल के नेतृत्व में असुर शक्ति का उदय। उसके प्रतिकार के लिये आबू पर्वत पर यज्ञ कर ४ शक्तिशाली राजाओं का संघ बना। ये राजा देश-रक्षा में अग्रणी या अग्री होने के कारण अग्निवंशी कहे गये-प्रमर (परमार-सामवेदी ब्राह्मण), प्रतिहार (परिहार), चाहमान (चौहान), चालुक्य (शुक्ल यजुर्वेदी, सोलंकी, सालुंखे)। इस संघ के नेता होने के कारण ब्राह्मण इन्द्राणीगुप्त को सम्मान के लिये शूद्रक ( ४ वर्णों या राआओं का समन्वय) कहा गया तथा इस समय आरम्भ मालव-गण-सम्वत् (७५६ ईसा पूर्व) को कृत-सम्वत् कहा गया।
भविष्य पुराण, प्रतिसर्ग पर्व, (३/३)-
व्यतीते द्विसहस्राब्दे किञ्चिज्जाते भृगूत्तम॥१९॥ अग्निद्वारेण प्रययौ स शुक्लोऽर्बुद पर्वते।
जित्वा बौद्धान् द्विजैः सार्धं त्रिभिरन्यैश्च बन्धुभिः॥२०॥
भविष्य पुराण, प्रतिसर्ग पर्व, (४/१२)-
बौद्धरूपः स्वयं जातः कलौ प्राप्ते भयानके। अजिनस्य द्विजस्यैव सुतो भूत्वा जनार्दनः॥२७॥
वेद धर्म परान् विप्रान् मोहयामास वीर्यवान्।॥२८॥
षोडषे च कलौ प्राप्ते बभूवुर्यज्ञवर्जिताः॥२९॥
भागवत पुराण (१/३/२४)-
ततः कलौ सम्प्रवृत्ते सम्मोहाय सुरद्विषाम्। बुद्धो नाम्नाजिनसुतः कीकटेषु भविष्यति॥
भविष्य पुराण, प्रतिसर्ग पर्व (१/६)-
एतस्मिन्नेवकाले तु कान्यकुब्जो द्विजोत्तमः। अर्बुदं शिखरं प्राप्य ब्रह्महोममथाकरोत्॥४५॥
वेद-मन्त्र प्रभावाच्च जाताश्चत्वारि क्षत्रियाः। प्रमरस्सामवेदी च चपहानिर्यजुर्विदः॥४६॥
त्रिवेदी च तथा शुक्लोऽथर्वा स परिहारकः॥४७॥ अवन्ते प्रमरो भूपश्चतुर्योजन विस्तृता।।४९॥
मन्दसोर के नरवर्मा शिलालेख-श्रीर्मालवगणाम्नाते प्रशस्ते कृतसंज्ञिते।
कुमारिल भट्ट-चित्सुखाचार्य ने इनको शङ्कर से ४८ वर्ष बड़ा कहा है।
अष्टचत्वारि वर्षाणि जन्मकालाद्गतानि वै। प्राद्य्र्भावः शङ्करस्य ततो जातोऽतिवादिनः॥
(संस्कृत चन्द्रिका, खण्ड २, पृष्ठ ६)
जिनविजय महाकाव्य में भी यही काल जैन युधिष्ठिर शक (२६३४ ई.पू. से) में दिया है-
ऋषि (७) र्वार (७) स्तथा पूर्णः (०) मर्त्याक्षौ (२) वाममेलनात्। एकीकित्य लभेताङ्क क्रोधी स्यात् तत्र वत्सरः॥
भट्टाचार्य कुमारस्य कर्मकाण्डैकवादिनः। ज्ञेयः प्रादुर्भावस्तस्मिन् वत्सरे यौधिष्ठिरे शके॥
२०७७ युधिष्ठिर शक = २६३४-२०७७ = ५५७ ईपू.
इनका जन्म स्थान महानदी के दक्षिण जयमङ्गला (वर्तमान काकटपुर मंगला?) कहा है-
आन्ध्रोत्कलानां संयोगे पवित्रे जयमङ्गले। ग्रामे तस्मिन् महानद्यां भट्टाचार्य कुमारकः॥
आन्ध्रजातिस्तैत्तिरीयो माता चन्द्रगुणा सती। यज्ञेश्वरः पिता यस्य—॥
इसी ग्रन्थ में शङ्कराचार्य का मृत्यु काल २१५७ जैन युधिष्ठिर शक अर्थात् ४७७ ईपू दिया है-
ऋषि (७) र्बाण (५) स्तथा भूमि (१) र्मर्त्याक्षौ (२) वाम मेलनात्। एकत्वेन लभेताङ्कस्ताम्राक्षा तत्र वत्सरः॥

✍🏻अरुण उपाध्याय

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