288वां बलिदान दिवस:

हकीकत राय- बालक वीर शिरोमणि
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स्वतंत्र भारत में इतिहास का पठन-पाठन जितना विकृति हुआ, वह पहले कभी न हुआ था। आज हकीकत राय का नाम हमारे विद्यार्थी तो क्या, आम शिक्षित लोग भी नहीं जानते। जबकि देश-विभाजन से पहले यह एक सुपरिचित नाम था। बल्कि, उस के बलिदान दिवस, वसन्त पंचमी को लाहौर में हकीकत की समाधि पर बड़ा मेला लगता था। उस में हजारों हिन्दू-सिख आकर श्रद्धा-सुमन चढ़ाते थे। कैसी विडंबना कि जो कथा और सांस्कृतिक परंपरा मुगल काल से लेकर ब्रिटिश काल तक दो सौ साल तक चलती रही, वह स्वतंत्र भारत में लुप्त-प्राय हो गई!

आज हकीकत राय के बलिदान के 288 वर्ष हुए। गणेशदास वडेरा की प्रसिद्ध इतिहास पुस्तक ‘चार बाग-ए-पंजाब’ (1849) में हकीकत राय का विस्तृत विवरण है। अमृतसर के राष्ट्रीय विचार मंच ने उस का एक लघु रूप प्रकाशित किया है। हकीकत राय का जन्म 8 नवंबर 1719 को सियालकोट में हुआ था। उन के पिता लाला बागमल एक प्रभावशाली, धनवान व्यक्ति थे। वहाँ हिन्दुओं की भारी आबादी थी। तब मुगल बादशाह मुहम्मद शाह रंगीला का राज था। हकीकत बड़ा होनहार, तेज विद्यार्थी और अच्छा वक्ता था। उस जमाने में शिक्षा की भाषा फारसी थी। एक दिन स्कूल में किसी कविता के एक शब्द पर एक मुल्ला के बेटे और हकीकत के बीच विवाद हो गया। तर्क-वितर्क में हकीकत का पलड़ा भारी पड़ा, तो मुल्लाजादे ने चिल्ला कर शिकायत की कि यह काफिरजादा इस्लाम के महापुरुषों में बुराई निकालता है। हकीकत ने इन्कार किया कि उस ने ऐसा कुछ कहा था, किन्तु मुस्लिम बच्चे मिल कर उसे पीटने लगे। अध्यापक भी चुप रहे। तब लोगों की भीड़ इकट्ठा हो गई। कुछ मुसलमानों ने माँग की कि इस्लाम की तौहीन की सजा मौत है। सो या तो हकीकत को मार डालो, या फिर वह इस्लाम कबूल करे, तब उसे माफी दी जा सकती है।

मामला बड़े मौलवियों के पास पहुँचा। सभी ने मुसलमानों का पक्ष लिया। तब लाला बागमल ने उन्हें नजराना और भारी रिश्वत देकर राजी किया कि मामले की निष्पक्ष जाँच कराएं। उस समय लाहौर में नबाव जकरिया खान बहादुर इन्साफ-पसन्द के रूप में विख्यात थे। लाला ने विनती की कि उन्हीं नबाव के दरबार में उन के बेटे की सुनवाई हो। स्थानीय मुल्लों ने इसे मंजूर कर लिया।

किन्तु तब तक मामले पर सरगर्मी बढ़ गई थी। जब हकीकत राय को सियालकोट से लाहौर ले जाया जा रहा था, तो रास्ते में असंख्य कट्टरपंथी मुसलमान साथ हो गए। ताकि मुकदमे में दबाव बनाएं और हकीकत छूटने न जाए। रास्ते भर हकीकत को तरह-तरह से अपमानित, प्रताड़ित किया। उसे घोड़े से उतर कर पैदाल चलने पर मजबूर किया गया। उस के पैर में छाले पड़ गए। साथ में चल रहे उस के अध्यापक उस की दशा देख कर दुखी होते थे। वे हकीकत को समझाते थे कि वह इस्लाम कबूल कर ले, ताकि कष्ट से निजात मिले। दूसरे मुसलमान भी उसे फुसलाते थे। पर हकीकत सचाई पर दृढ़ रहा।

लाहौर में खबर पहुँच चुकी थी कि एक काफिर बच्चे ने इस्लाम की तौहीन की, जिस पर मुकदमा चलने वाला है। वहाँ भी कट्टरपंथियों ने उसे मौत देने की माँग की। जब नबाव ने मामले में सभी लोगों के अलग-अलग बयान लिये, तो समझ गया कि मामला झूठा है। फिर उस ने मौलवियों को अलग ले जाकर कहा कि इस बालक पर गलत आरोप लगा है, इसलिए वह अन्याय नहीं कर सकता। लेकिन मौलवियों ने कहा कि अगर नबाव ने काफिर का पक्ष लिया तो मुसलमानों में बदनाम हो जाएंगे! तब नबाव ने हकीकत को समझाया कि उस के लिए इस्लाम कबूल लेना ही बेहतर है। हकीकत ने कहा कि, ‘‘नबाव साहब, मुसलमान बन जाने से क्या कोई अमर हो जाता है? यदि नहीं, तो ऐसे नश्वर जीवन के लिए मै अपना मूल्यवान धर्म क्यों छोड़ दूँ?’’ तब नबाव ने हकीकत को जागीर, ईनाम, आदि के प्रलोभन दिए। हकीकत ने सब ठुकरा दिया। हार कर नबाव ने कहा कि काजी शरीयत के मुताबिक सजा सुना दें। काजियों ने हकीकत को कत्ल करने की सजा तय की।

तब हकीकत के पिता ने एक दिन की मोहलत देने की विनती की, ताकि परिवार के लोग बेटे को समझा सकें। सभी उपस्थित मुसलमानों ने इसे खुशी-खुशी मान लिया। अधिकांश लोग मामले की सचाई जान चुके थे, इसलिए हकीकत को मारना नहीं चाहते थे। किन्तु इस्लाम की सर्वोच्चता को उन्होंने प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया। अतः ऐसे काफिर बच्चे को मुसलमान बनाना जरूरी समझते थे, जो अपने धर्म को श्रेष्ठ समझता था। इसलिए जो मुसलमान नहीं बनना चाहता था। तमाम मुल्ले, काजी, और कट्टरपंथियों को लग रहा था कि बिना मुसलमान बने हकीकत के जिंदा बचने में इस्लाम की हेठी होगी। सो, उन्होंने ‘इस्लाम या मौत’ का अपना पारंपरिक हथियार चलाया।

बहरहाल, रात भर हकीकत के सभी सगे-संबंधी उसे इस्लाम कबूल करके जान बचाने की विनती करते रहे। पर धर्मराज के सम्मुख अडिग नचिकेता की तरह बालक हकीकत ने अपने पिता को भी जीवन और धर्म का सत्य याद दिलाया। यहृ भी कहा कि जो मजहब सदैव दूसरों को प्रताड़ित करता, छल करता है, झूठे आरोप लगाकर भी अन्य धर्मावलंबियों को सताता है, उसे स्वीकार कर लेना तो अपने को गिराने के समान है। अतः, ‘‘अपने स्वर्ण समान धर्म को मिट्टी के प्याले के लिए त्याग देना बुद्धिमानी नहीं।’’

इस बीच शहर में मौलवियों को विश्वास था कि परिवार के लोग हकीकत को जरूर मना लेंगे। इसलिए सवेरे-सवेरे हकीकत को धूम-धाम से मुसलमान बनाने की तैयारी थी। उस के लिए भेंट में सुनहरी पोशाक, सजे-धजे घोड़े-हाथी, अशर्फियों की थैली, आदि इकट्ठा की गई थी। सवेरे हकीकत के वहाँ पहुँचने पर भीड़ ने ‘शाबास’ के नारे लगाए, क्योंकि उस का मुख चमक रहा था। लोगों ने समझा कि वह मुसलमान बनने को तैयार है। इसीलिए प्रसन्न है। किन्तु हकीकत ने अपने धर्म पर बने रहने की बात बताई। तब नबाव ने उस घमंडी बालक को कत्ल करने का हुक्म दे दिया। इस्लामी रिवाज के मुताबिक हकीकत को कमर तक जमीन गाड़ दिया गया। मुस्लिम भीड़ ने उस पर ईंट-पत्थर बरसाए, और अंत में एक सिपाही ने तलवार से उस की गर्दन उड़ा ही। उस पूरे दौरान हकीकत राम-राम जपता रहा।

इस के बाद, पूरी घटना की चर्चा य़थावत् होने लगी। यह कि वह बालक अपने धर्म का सच्चा था! वह वीर था। शाही आदेश भी जारी हुआ कि हकीकत का दाह-संस्कार हिन्दू धर्म के रीति-रिवाज से अच्छी तरह ससम्मान किया जाए। तब तो लाहौर और आस-पास के हिन्दू समाज ने उस वीर बालक के लिए अपनी श्रद्धा उड़ेल कर रख दी। संस्कार-स्थल पर चंदन, फूल, कस्तूरी, अगरू, गंगाजल, और रेशम का अंबार लग गया। उस दिन, वसन्त पंचमी 8 फरवरी 1734 को लाहौर में फूल बेचने वालो को सौ-सौ गुने अधिक दाम मिले। हकीकत की पूरी शवयात्रा पर फूलों की अबाध वर्षा होती रही।

हकीकत के बलिदान की चारो ओर धूम मच गई। लाहौरवासियों ने कोट खोजा सईद के साथ उस की समाधि बनाई। उस पर हर साल वसन्त पंचमी को लोग मेला लगाकर भजन-कीर्तन करते थे। कवियों, भाटों, गवैयों ने हकीकत पर गीत लिखे। जो जगह-जगह गाए जाते थे। यह सब दो शताब्दी तक चलता रहा। पर आज – आजाद भारत में – वे गीत गुम हो गए हैं। राजीव कुमार और अमित त्रेहन के शब्दों में, ‘‘आज सभी हिन्दू मुर्झाए हुए फूलों जैसे मुर्दादिल हैं।’’

इस का मुख्य कारण भारत में सच्चे इतिहास-शिक्षण का लोप हो जाना है जो मुगलों और अंग्रेजों के राज में भी नहीं हुआ था। उलटे हमारे कागजी शेरों ने खुद इतिहास पर मिट्टी डालने की ठानी है। अब वे हकीकत राय नहीं, अपितु ‘समान पूर्वज और डीएनए’ के गीत गाते हैं।

– डॉ. शंकर शरण (४ फरवरी २०२२)

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