ससुराल पलित दलित प्रो.डाॅ.तुलसीराम की विधवा राधा देवी का कसूर क्या है?
“नींव की ईंट”
दलित बनाम पलित
यह राधा देवी हैं।
साकिन ग्राम-धर्मपुर, पोस्ट-दौलताबाद जिला आज़मगढ़ (उत्तर प्रदेश )।
हिंदी के मूर्धन्य लेखक ‘मुर्दहिया’ और ‘मणिकर्णिका’ जैसी प्रसिद्ध आत्मकथाओं के रचनाकार, प्रोफेसर डॉक्टर तुलसी राम की पहली पत्नी।
प्रोफ़ेसर तुलसी राम से इनका बाल विवाह 2 साल की उम्र में हो गया था। 10-12 साल की उम्र में जब कुछ समझ आई तो इनका गौना हुआ।
उस समय तक तुलसी राम मिडिल पास कर चुके थे। घर में विवाद हुआ कि तुलसी पढ़ाई छोड़ हल की मूठ थामें।
पढ़ने में होशियार तुलसी राम को यह नागवार गुजरा और उन्होंने इस सम्बंध में अपनी नई-नवेली पत्नी राधा देवी से गुहार लगाई कि वह अपने पिता से मदद दिलायें, जिससे उनकी आगे की पढ़ाई पूरी हो सकें।
राधा देवी ने अपने नैहर जाकर यह बात अपने पिता से कही और अपने पिता से तुलसी राम को सौ रुपये दिलवाए। उस जमाने में सौ रुपए का मूल्य आज नहीं समझा जा सकता.
इस प्रकार पत्नी के सहयोग से निर्धन और असहाय तुलसी राम की आगे की पढ़ाई चल निकली।
…पति आगे चलकर अपने पैरों पर खड़ा हो जाएगा, उन्हें सुख-साध देगा। युवा राधा देवी ने अपने सारे खाँची भर गहने भी उतारकर तुलसी राम को दे दिए, जिनसे आगे चलकर तुलसी राम का बनारस विश्वविद्यालय में एडमिशन हो गया।
पिता और 5 भाइयों की दुलारी राधा देवी के पति का भविष्य उज्ज्वल हो, इस हेतु राधा देवी के मायके से प्रत्येक माह नियमित राशन-पानी भी तुलसी राम के लिए भेजा जाने लगा।
ससुराल में सास-ससुर देवर-जेठ और ननद-जेठानियों की भली-बुरी सुनती सहती अशिक्षित और भोली राधा देवी, संघर्षों के बीच पति की पढ़ाई के साथ-साथ अपने भविष्य के भी सुंदर सपने बुनने लगीं थीं।
उधर शहर और अभिजात्य वर्ग की संगत में आये पति का मन धीरे-धीरे राधा देवी से हटने लगा। गरीबी में गरीबों के सहारे पढ़-लिखकर आगे बढ़ने वाले तुलसी राम को अब अपना घर और पत्नी सब ज़ाहिल नज़र आने लगे।
शहर की हवा खाये तुलसीराम का मन अंततः राधा देवी से हट गया।
बीएचयू के बाद उच्चशिक्षा हेतु तुलसी राम ने जेएनयू दिल्ली की राह पकड़ ली, जहाँ वह देश की उस ख्यातिलब्ध यूनिवर्सिटी में पढ़ाई और शोध उपरांत, प्रोफ़ेसर बने और समृद्धि के शिखर तक जा पहुँचे। प्रोफ़ेसर बनने के उपरांत तुलसी राम ने राधादेवी को बिना तलाक दिए अपने से उच्चजाति की शिक्षित युवती से विवाह कर लिया और फिर मुड़कर कभी अपने गाँव और राधा देवी की ओर नहीं देखा!!!
राधा देवी आज भी उसी राह पर खड़ी हैं, जिस राह पर प्रोफ़ेसर तुलसी राम उन्हें छोड़कर गए थे। जिस व्यक्ति को अपना सर्वस्व लुटा दिया उसी ने छल किया। इस अविश्वास के चलते परिवार-समाज में पुनर्विवाह का प्रचलन होने पर भी राधा देवी ने दूसरा विवाह नहीं किया। भाई अब अत्यंत गरीब हैं।
सास-ससुर रहे नहीं।
देवर-जेठ उन्हें ससुराल में टिकने नहीं देते कि ज़मीन का एकाध पैतृक टुकड़ा जो प्रोफ़ेसर तुलसी राम के हिस्से का है, बंटा न ले । इसलिए वे उन्हें वहाँ से वे दुत्कार देते हैं।
…कुछ साल पहले जब प्रोफ़ेसर तुलसी राम जी का निधन हुआ तो उनके देवर-जेठ अंतिम संस्कार में दिल्ली जाकर शामिल हुए, पर राधा देवी को उन्होंने भनक तक न लगने दी! बहुत बाद में उन्हें बताया गया तो वे अहवातिन से विधवा के रूप में आ गईं हैं, उनके शोक में महीनों बीमार रहीं देह की खेह कर ली। किसी ससुराली ने एक गिलास पानी तक न दिया!!
बेघरबार राधा देवी आज ससुराल और मायके के बीच झूलतीं दाने-दाने को मोहताज़ हैं!!!
साभार: Rohit Ramwapuri Nikhil
#RK Singh की फेसबुक पोस्ट से
जिसकी ‘मुर्दहिया’ ने देश झकझोरा वो ‘पत्नी’ कैसे भूल गया?
दलित चिंतक और लेखक तुलसीराम के निधन के तीन साल बाद राधा देवी का दावा, वो उनकी पहली पत्नी थीं
एक वीडियो सामने आया है जिससे प्रख्यात दलित चिंतक प्रोफ़ेसर तुलसीराम की पहली पत्नी का पता चला है, प्रोफ़ेसर तुलसीराम के निधन के तीन साल बाद ये सच सामने आया है.
आजमगढ़ की ये महिला राधा देवी बता रही हैं कि उनका दो साल की उम्र में तुलसीराम के साथ बालविवाह हुआ था. उनके परिजनों ने तुलसी राम की पढ़ाई में सहायता की और इसके लिए उनके गहने बेचे गए लेकिन तुलसी राम ने अपनी मशहूर आत्मकथा “मुर्दहिया” में इस महिला का ज़िक्र तक नहीं किया जिसने बहुत उत्पीड़न झेला है.
हालाँकि लेखक के निजी जीवन और उसके लेखन को जोड़कर देखना ही अपने आप में अच्छी ख़ासी बहस का विषय है लेकिन ये मामला इसलिए ख़ास है क्योंकि कुछ युवा मांग कर रहे हैं कि राधा देवी को तुलसीराम की किताब की रॉयल्टी और संपत्ति में हिस्सा मिलना चाहिए.
तीन साल पहले, जेएनयू में प्रोफ़ेसर रहे प्रोफ़ेसर तुलसीराम के निधन पर मैंने लिखा था- “उनकी तुलना में जेएनयू के ज़्यादातर प्रोफ़ेसर प्लास्टिक के ज्ञानी लगते हैं.”
उनकी आत्मकथा में उस धातु की महीन झनकार सुनाई देती है जिसके बूते भुखमरी, जातीय प्रताड़ना का शिकार, डेढ़ आंख वाला चेचक पीड़ित एक दलित लड़का घर से भागकर, एक आश्चर्य की तरह प्रोफ़ेसरों की दुनिया में चला आया था.
दलित चिंतक और लेखक तुलसीराम का आजमगढ़ स्थित घर
मुर्दहिया
अब मुझे अपनी राय कुछ बदलनी पड़ रही है क्योंकि प्रोफ़ेसर तुलसीराम की ज़िंदगी का सच बदल गया है. वह वैसा नहीं रहा जैसा उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘मुर्दहिया’ में बयान किया है.
आजमगढ़ के धर्मपुर गांव की ही तरह खुद तुलसीराम के भीतर भी एक ‘मुर्दहिया’ थी जिसमें उन्होंने अपनी पहली पत्नी राधादेवी को जीते जी दफ़न कर दिया था. मुर्दहिया, गांव के बाहर एक जंगल हुआ करता था जिसमें दलितों के मुर्दे और मृत पशु दफ़न किए जाते थे, यही मुर्दहिया तुलसीराम के उत्पीड़ित और अभिशप्त जीवन का एक सटीक रूपक बनाता है.
तुलसीराम के चाहने वाले कुछ युवाओं की कोशिश से तुलसीराम की मृत्यु के तीन साल बाद राधादेवी सामने आई हैं. वह बता रही हैं कि तुलसीराम के साथ उनका बालविवाह हुआ था. घर वाले चाहते थे कि वे भी अपने पिता की तरह मज़दूरी करें, लेकिन उन्हें यह मंजूर नहीं था.
पढ़ाई के लिए तुलसी राम ने उनके गहने बेचे, उनके मायके से पैसों और अनाज की मदद ली, लेकिन बाद में उन्हें अपने हाल पर छोड़ दिया. उन्होंने कभी राधा देवी को पत्नी के रूप में स्वीकार नहीं किया, न उनका किसी रूप में अपनी किताब में ज़िक्र किया जो हिंदी में सबसे ज़्यादा इज़्ज़त पाने वाली दलित-आत्मकथा है.
तुलसी राम ने जेएनयू में प्रोफ़ेसर होने के बाद दूसरी शादी कर ली थी. उनकी दूसरी पत्नी और बेटी दिल्ली में रहती हैं जिन्हें उनकी मृत्यु के बाद ही पहले विवाह का पता चल पाया.
तुलसी राम की दूसरी पत्नी को सामने लाने वाले युवा मांग कर रहे हैं कि तुलसी राम की पेंशन का एक हिस्सा बेहद ग़रीबी में रह रही, बेसहारा राधा देवी को दिया जाना चाहिए.
FACEBOOK PROFILE TULSIRAM
पत्नी का जिक्र क्यों नहीं?
इस विवाद में एक तबका कह रहा है कि इस बाल विवाह में तुलसी राम की कोई भूमिका नहीं थी जो उन पर बचपन में थोप दिया गया था. बड़े होने पर उन्होंने इसे स्वीकार नहीं किया. अपने घर वालों से संबंध खत्म कर लिए और बाकी ज़िंदगी अपनी मर्ज़ी से जिए इसलिए पहली पत्नी का ज़िक्र करना, न करना ख़ास मायने नहीं रखता है. जो लोग पहली पत्नी का मसला उठा रहे हैं वे उन लोगों के हाथ में खेल रहे हैं जो तुलसी राम के कृतित्व और प्रेरक व्यक्तित्व पर पानी फेर देना चाहते हैं.जो भी हो तुलसी राम ने जान-बूझकर राधा देवी को दफ़न किया, अपने विवाह का ज़िक्र आत्मकथा में नहीं आने दिया और दूसरी पत्नी से भी छिपाकर रखा. उन्होंने अपने समय की बहुत सी सामाजिक कुरीतियों और उनसे बर्बाद हुई ज़िंदगियों के बारे में आत्मकथा में लिखा है. वे चाहते तो बालविवाह की कुरीति के विरोध के साथ भी अपनी असहाय स्थिति का ज़िक्र करते हुए राधा देवी के दुर्भाग्य के बारे में लिख सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया.
यह वाक़या बताता है कि अंतरराष्ट्रीय बौद्ध आंदोलन, दलित राजनीति और साहित्य के विशेषज्ञ तुलसी राम ने पूरी लेखकीय ईमानदारी नहीं बरती. उन्होंने आत्मकथा में उन सदाशय सवर्ण पुरूषों का ज़िक्र तो किया जिन्होंने उन्हें कभी खाना खिलाया, उनकी फ़ीस भरी और विपरीत परिस्थितियों में टिके रहने का हौसला दिया, लेकिन अपनी पत्नी को भुला दिया.
राधा देवी भी उन्हीं परिस्थितियों की शिकार हुईं जिनके शिकार वे खुद थे. वे अपने विरोध के साथ अपने बालविवाह और पढ़ाई में मददगार पहली पत्नी को आत्मकथा में जगह देते तो वे और बड़े व्यक्तित्व के रूप में सामने आते.

आत्मकथा लेखक की सुविधा का मामला नहीं होता कि किस घटना का जिक्र किया जाए और किसे गोल कर दिया जाए. वहां आत्मनिरीक्षण करते हुए अपने जीवन का स्याह-सफेद सामने रखना होता है. उम्मीद की जाती है कि लिखने वाला अपनी ज़िंदगी की सच्ची और विश्वसनीय तस्वीर पेश करेगा ताकि पढ़ने वाले उससे सीख ले सकें.
विश्व साहित्य में एक विधा के तौर आत्मकथा लेखन की शुरुआत चौथी शताब्दी में संत आगस्तीन के ‘कनफ़ेशन्स’ से मानी जाती है. बाद में दास प्रथा के अनुभव लिखने वाले गुलामों ने इसे समृद्ध किया जो भारत में दलित आत्मकथाओं की प्रेरणा साबित हुईं.
औरत, दलितों में भी दलित
इस बात पर ध्यान जाए बगैर नहीं रहता कि हिंदी के दस से अधिक बुज़ुर्ग लेखकों की दो-दो पत्नियां हैं और वे इसे छिपाते हैं. इस भाषा की अधिकतर आत्मकथाएं बेईमान हैं, खासकर लेखकीय छवि के प्रचार को लिखी गई हैं यही वजह है कि उन्हें पाठक नहीं मिलते.
शिक्षा, राजनीतिक आंदोलन और मार्क्स-बुद्ध-आंबेडकर के प्रभाव में ख़ुद तुलसी राम की ज़िंदगी तो पूरी तरह बदल गई, लेकिन औरत के प्रति उनका नजरिया शायद नहीं बदला. उन्हें विवाह के बावजूद पत्नी की तरह कभी न स्वीकार की गई, गांव में हर तरह से उपेक्षित रहीं राधा देवी का दुख और संघर्ष अपनी करिश्माई कामयाबी में बदनुमे दाग़ की तरह लगता रहा होगा जो दूसरे वैवाहिक संबंध में बाधा बन सकता था, इसलिए उन्होंने चुप्पी साध ली.
तुलसीराम अकेले नहीं हैं. बहुतेरे दलित लेखकों, चिंतकों, राजनेताओं, व्यापारियों में यह प्रवृत्ति वैसी ही दिखाई देती है जैसी दूसरी जातियों में है. दो साल पहले क्रांतिकारी मराठी कवि और दलित पैंथर्स के संस्थापक नामदेव ढासाल की पत्नी मल्लिका अमरशेख की आत्मकथा ‘आय वान्ट टू डिस्ट्रॉय माइसेल्फ़’ आई जो पति से मिली पिटाई, यौन रोगों और उपेक्षा का एक क्रुद्ध आख्यान है.
इस विवाद के बावजूद तुलसी राम की आत्मकथा इस मायने में विशिष्ट है कि वह अन्य दलित आत्मकथाओं की तरह सिर्फ़ सहानुभूति पाने को अत्याचार की शिकायत नहीं करती. वह दिखाती है कि दलितों की भी प्रतिरोध की अपनी परंपरा है और हथियार हैं. उसमें पूर्वी उत्तर प्रदेश की ऐसी औरतें दिखाई देती हैं जो मृत पशुओं की हड्डियों से बनी तलवारों और जचगी के कचरे वाली हंडिया लेकर लड़ती हैं और अपवित्र होने के डर से ब्राह्मण-जमींदार भागते हैं.
राधादेवी को मूर्तिभंजक खलनायिका की तरह देखने के बजाय इस तरह देखा जाना चाहिए कि उन्होंने तुलसी राम की अधूरी आत्मकथा को पूरा किया है और इस तथ्य को सामने रखा है कि औरत, दलितों में भी दलित है. उन्होंने उम्मीद जगाई है कि दलित जीवन की असली आत्मकथाएं आने वाले दिनों में दलित औरतें ही लिखेंगीं।
इस मामले को लेकर 2018 में अंगिरा चौधरी और राधादेवी को न्याय के अभियानी धर्मवीर यादव गगन, स्त्री काल के संपादक संजीव में जमकर सार्वजनिक कलह हुआ जिसमें अंगिरा ने राधादेवी को अपने समृद्ध मायके से हक मांगने को कहा तो गगन ने उनके मायके की दुर्दशा विस्तार से बताई प्रोफ़ेसर तुलसीराम के पैतृक घर और कुंए पर उनकी पुत्री अंगिरा चौधरी ,साथ में श्वेत साडी में राधादेवी