रपट: भारत में कितनी खतरनाक है ग्रामीण और कस्बाई पत्रकारिता? पत्रकार मुकेश चंद्राकर की हत्या और पत्रकारीय चुनौतियां
न्यायिक प्रक्रिया ही बन रही पत्रकारों की सज़ा, छोटे स्थानों के पत्रकार ज़्यादा निशाने पर: रिपोर्ट
एक ताजा रिपोर्ट के अनुसार भारत में पत्रकारों पर आपराधिक क़ानूनी प्रक्रिया ही सज़ा बन गई है. अधिकांश मामलों में जांच या सुनवाई पूरी नहीं होती, जिससे छोटे स्थानों में पत्रकारों को आर्थिक तंगी, मानसिक तनाव और करिअर पर खतरा झेलना पड़ता है.
नई दिल्ली 11 जनवरी 2025: भारत भर के पत्रकारों को ‘कानूनी प्रक्रिया ही सज़ा बन रही है’ — यह अनावरण क्लूनी फाउंडेशन फॉर जस्टिस के ट्रायलवॉच इनिशिएटिव, नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी दिल्ली और कोलंबिया लॉ स्कूल के ह्यूमन राइट्स इंस्टिट्यूट की रपट से हुआ है.
इसके अनुसार आपराधिक मामलों में फंसाने की प्रक्रिया में हर चरण लंबा खिंचने से पत्रकारों को आर्थिक कठिनाई, डर और चिंता जैसी मानसिक परेशानियों से दो-चार होना पड़ता है। उनके निजी व पेशेवर जीवन समस्याग्रस्त होता हैं.
‘प्रेसिंग चार्जेस: ए स्टडी ऑफ क्रिमिनल केसेज़ अगेंस्ट जर्नलिस्ट्स अक्रॉस स्टेट्स इन इंडिया’ शीर्षक रिपोर्ट के अनुसार, ‘244 मामलों में से 65% से अधिक 30 अक्टूबर, 2023 तक भी पूरे नहीं हुए. 40% मामलों में पुलिस जांच अधूरी रही और 16 मामलों (6%) में ही मुकदमे का अंतिम निपटारा, दोषसिद्धि या बरी, हुआ .
रिपोर्ट के अनुसार छोटे शहरों या कस्बों में कार्यरत, या स्थानीय समाचार संस्थानों के रिपोर्टरों की गिरफ्तारी की संभावना, बड़े शहरों की तुलना में कहीं अधिक थी.रिपोर्ट के अनुसार, पत्रकारों के लिए न्याय प्रणाली स्थान और सामाजिक स्थिति आधार पर भी अलग-अलग होती है.
‘महानगरों में पत्रकारों की गिरफ्तारी कुल मामलों में 24% और छोटे शहरों/कस्बों में 58% तक है. इसका संबंध पत्रकारों की न्याय तक पहुंच से है.’
और अधिक यह चौंकाता है कि बड़े शहरों के 65% पत्रकारों को गिरफ्तारी से अंतरिम राहत मिली, छोटे शहरों में राहत 3% पत्रकारों को ही मिल सकी. इसका संभावित कारण यह है कि राहत सुप्रीम कोर्ट से मिली जो दिल्ली में है. हिंदी या अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में कार्यरत पत्रकारों को अंग्रेजी पत्रकारों की तुलना में अधिक प्रतिकूल अनुभव का सामना करना पड़ा.
‘ डेटा यह समझने में सहायक है कि यदि ‘प्रक्रिया ही सज़ा’ है, तो यह सज़ा दिल्ली से दूरी के अनुपात में बढ़ जाती है.’
अध्ययन एक नए डेटा सेट के विश्लेषण पर आधारित है, जिसमें भारत के राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में 427 पत्रकारों पर 423 आपराधिक मामलों की जानकारी शामिल है. इसमें 2012 से 2022 के बीच पत्रकारों पर 624 आपराधिक घटनाएं शामिल हैं.
रिपोर्ट के लिए 48 पत्रकारों का साक्षात्कार लिया गया. मुकदमे पत्रकारिता को गंभीर रूप से प्रभावित करते हैं:
58% पत्रकारों ने आर्थिक तंगी झेली,
56% को डर या चिंता ने सताया,
73% के निजी जीवन पर असर पड़ा,
56% के करिअर पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा.
इसके अलावा, पत्रकारों के परिवारों को भी कठिनाइयों से गुजरना पड़ा. एक पत्रकार के अनुसार ‘मेरी गिरफ्तारी से मेरा परिवार बहुत परेशान हुआ, खासकर मेरे छोटे बच्चे, जो बहुत चिंतित थे. ऐसे केस सिर्फ एक व्यक्ति को निशाना नहीं बनाते, पूरा परिवार तोड़ देते हैं. अंततः ये घुटनों पर ला देते हैं’
ट्रायलवॉच के कानूनी निदेशक स्टीफन टाउनली ने कहा, ‘हम यह उजागर करना चाहते हैं कि विभिन्न देशों और सरकारों के पत्रकारों को निशाना बनाने और अभिव्यक्ति की आज़ादी सीमित करने को कैसे नए तरीके लाये जा रहे हैं. यह रिपोर्ट वैश्विक बहस में एक नया दृष्टिकोण जोड़ेगी और भारतीय संदर्भ में महत्वपूर्ण डेटा उपलब्ध करायेगी .’
नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी, दिल्ली के प्रोफेसर अनूप सुरेंद्रनाथ ने इस अध्ययन का नेतृत्व किया। उन्होंने कहा, ‘ रिपोर्ट का संविधानिक महत्व बहुत गहरा है. यह दिखाता है कि कैसे संविधान संरक्षित प्रेस की स्वतंत्रता को सामान्य आपराधिक कानून और प्रक्रिया से क्षीण किया जा रहा है.’
रिपोर्ट के अनुसार पत्रकारों पर मुकदमे सामान्य रूप से अस्पष्ट होते हैं, और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के भारतीय संवैधानिक संरक्षण की अनदेखी करते हैं. 2024 से प्रभावी नयी भारतीय दंड संहिता (बीएनएस) ने भी इन अस्पष्ट कानूनों में कोई खास सुधार नहीं किया .
‘इससे इन कानूनों के दुरुपयोग की आशंका अभी भी है. इसके अलावा, बीएनएस में एक नया अस्पष्ट प्रावधान धारा 195(1)(d) — ‘भारत की संप्रभुता, एकता, अखंडता या सुरक्षा खतरे में डालने वाली झूठी या भ्रामक सूचना’ को अपराध बनाता है.’
निष्कर्ष ये कि भारत में पत्रकारिता खतरनाक काम है.
‘सिर्फ पेशेवर पत्रकार ही नहीं, बल्कि ह्विसिलब्लोअर, ‘सिटीजन जर्नलिस्ट्स’ और अन्य लोग भी इन खतरों और अभियोजन की परिधि में आते हैं.’
‘पुलिस ने माओवादी बताया, माओवादियों ने मुख़बिर’ मुकेश चंद्राकर की हत्या के बाद बस्तर में काम करने की चुनौतियों पर क्या बोले पत्रकार
स्वतंत्र पत्रकार मुकेश चंद्राकर की एक पुरानी तस्वीर
छत्तीसगढ़ में स्वतंत्र पत्रकार मुकेश चंद्राकर की हत्या उसी के रिश्तेदार ठेकेदार ने की
रायपुर 10 जनवरी 2025। भारत में माओवादियों और सुरक्षाबलों की लड़ाई का केंद्र बन चुके बस्तर में पत्रकारों को केवल इन दो मोर्चों पर ही नहीं जूझना पड़ता.इन पत्रकारों के हिस्से चौतरफ़ा मोर्चे हैं और कई बार इसकी क़ीमत जान दे कर चुकानी होती है. स्वतंत्र पत्रकार मुकेश चंद्राकर की हत्या इसका ताज़ा उदाहरण है.
मुकेश चंद्राकर की हत्या के छठवें दिन, मुख्य आरोपित और ठेकेदार सुरेश चंद्रकार को पुलिस ने हैदराबाद से पकड़ा है.
छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय ने कहा है कि ‘कोई भी दोषी छूटेगा नहीं और जल्द से जल्द जांच पूरी होगी.’
बस्तर में पत्रकारिता की क्या हैं चुनौतियां
छत्तीसगढ़ में रिपोर्टिंग में बस्तर में पत्रकारों को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।
मुकेश चंद्राकर की हत्या से ठीक एक साल पहले, 1 जनवरी 2024 को माओवादियों के मध्य रीजन ब्यूरो प्रवक्ता प्रताप ने मुकेश चंद्राकर के नाम पर जारी चिट्ठी में मुकेश चंद्राकर को पुलिस और सरकार का दलाल बता धमकाया था.
इस चिट्ठी से 10 दिन पहले, बीजापुर के ही मुर्कीनार इलाके में मुकेश चंद्राकर समेत पांच पत्रकारों पर सीआरपीएफ के जवानों ने बंदूक तान उन्हें मारने की धमकी दी थी. मुकेश ने इस पर भी रिपोर्ट बनाई थी.
इस चिट्ठी और सीआरपीएक जवानों के बंदूक तानने के दो महीने पहले बीजापुर के अनुविभागीय दंडाधिकारी यानी एसडीएम ने मुकेश चंद्राकर समेत चार पत्रकारों को नोटिस दिया था कि 24 घंटे में बतायें कि उन्होंने माओवादी हिंसा की ख़बरें क्यों प्रसारित की? एसडीएम के अनुसार ऐसी कोई घटना हुई ही नहीं थी.
पिछले साल अप्रैल में, बीजापुर में कांग्रेस पार्टी ज़िलाध्यक्ष लालू राठौर ने मुकेश चंद्राकर समेत चार पत्रकारों के बहिष्कार की चिट्ठी जारी की थी.
कांग्रेस अध्यक्ष के अनुसार एक राजनीतिक दल विशेष को लाभ पहुंचाने को बीजापुर विधायक विक्रम मंडावी के ख़िलाफ़ दुर्भावनापूर्ण, अनर्गल और बिना तथ्य लगातार ख़बरों का प्रकाशन-प्रसारण हो रहा था. ताकि विधायक विक्रम मंडावी की लोकप्रिय छवि ख़राब हो.”
माओवादी, सरकारी तंत्र और राजनीतिक दलों से परे मुकेश की हत्या उन ठेकेदारों ने की, जो मुकेश चंद्राकर के रिश्तेदार भी थे और जिनके साथ मुकेश चंद्राकर का हर दिन उठना-बैठना था.
दक्षिण बस्तर के गुमियापाल गांव के वनवासी पत्रकार मंगल कुंजाम मानते हैं कि मुकेश चंद्राकर की हत्या ने दूसरे पत्रकारों के लिए ख़तरे की घंटी बजा दी है.
मंगल कुंजाम
ऑस्कर को नामित ‘न्यूटन’ फिल्म में पत्रकार की भूमिका निभाने वाले मंगल कुंजाम ने कहा, “धमकियां पहले भी मिलती थी. पिछले कुछ समय से एक स्पॉन्ज आयरन से जुड़े लोग मुझे मैनेज करने को जगह-जगह बातें कर रहे हैं. लेकिन मुकेश चंद्राकर की हत्या के बाद, मुझे सुरक्षा की चिंता सताने लगी है.”
पुलिस ने माओवादी बताया, माओवादियों ने मार डाला भेदिया बता
बीजापुर ज़िले के ही पत्रकार साईं रेड्डी की दसियों साल पहले हत्या लोगों को अब भी याद है.
बांसागुड़ा निवासी पत्रकार साईं रेड्डी को मार्च 2008 में पुलिस ने माओवादी बता कर बहुचर्चित ‘छत्तीसगढ़ जन सुरक्षा क़ानून’ में जेल भेजा था. आरोप था कि उनकी पत्नी की राशन दुकान से माओवादियों ने राशन लिया था.
रेड्डी जैसे-तैसे रिहा हुए. लेकिन माओवादी के आरोप में कई महीनों तक जेल रह कर आये साईं रेड्डी को माओवादी पुलिस का आदमी बताते रहे.यहां तक कि उनका घर बम से उड़ा दिया . रेड्डी और उनके परिवार को भाग कर पड़ोसी ज़िले आंध्रप्रदेश के चेरलापाल में रहने को मज़बूर होना पड़ा था.
इसके बाद भी पुलिस उन्हें लगातार माओवादी बताती रही. 6 दिसबंर 2013 को बीजापुर के बांसागुड़ा के बाज़ार में भरी दोपहर, संदिग्ध माओवादियों ने 50 वर्षीय साईं रेड्डी को मार डाला.
माओवादियों का आरोप था कि साईं रेड्डी पुलिस के भेदिए थे, इसलिए उनकी हत्या की गई.
बस्तर के ही सुकमा के पत्रकार नेमीचंद जैन का किस्सा इससे अलग नहीं है.
12 फरवरी 2013 को माओवादियों ने नेमीचंद जैन की हत्या कर दी. 45 वर्षीय नेमीचंद जैन के शव पर माओवादियों ने पर्चा छोड़ा था कि नेमीचंद जैन पुलिस के लिए जासूसी करते थे, इसलिए उनकी हत्या की गई . — एक पत्रकार की राय
नेमीचंद जैन हत्या का पत्रकारों ने व्यापक विरोध किया तो माओवादियों ने बयान जारी किया कि यह हत्या उन्होंने नहीं की।
तब भी पत्रकारों का विरोध जारी रहा. पूरे बस्तर के पत्रकारों ने माओवादियों से जुड़ी ख़बरों का तब तक बहिष्कार करने का फ़ैसला लिया, जब तक माओवादी इस हत्या के लिए माफ़ी मांग अपने दोषी सहयोगियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई नहीं करते.आख़िरकार नेमीचंद जैन की हत्या के 45 दिन बाद माओवादियों ने अपनी गलती स्वीकारी.
उन्होंने बीजापुर के जंगल में पत्रकारों से बातचीत में माफ़ी मांग माना कि उनके संघम सदस्यों यानी निचले कैडर ने नेमीचंद जैन की हत्या की थी और शीर्ष नेतृत्व मामले में फ़ैसला कर दोषियों को दंडित करेगा.
बीजापुर के पत्रकार ने कहा, “संकट ये है कि हम पत्रकार किसी के साथ नहीं हैं. लेकिन हम पर चारों तरफ़ से निशाना साधा जाता है. किसी के ख़िलाफ़ लिख दें तो हमें दुश्मन खेमे का बता देना, उनके लिए सबसे आसान होता है. इससे भी आसान होता है हमें ब्लैकमेलर बता देना. ये पूछने का मन होता है कि रायपुर या दिल्ली के कितने पत्रकार अपनी छाती पर हाथ धर कर कह सकते हैं कि वे या उनके दूसरे पत्रकार साथी पाक साफ हैं? ”
‘न वेतन, न सुरक्षा’
छत्तीसगढ़ में बस्तर से लेकर सरगुजा संभाग और तत्कालीन उत्तर प्रदेश तक, अधिकांश ग्रामीण पत्रकारों को अख़बार या टीवी चैनल न तो कोई नियुक्ति पत्र देते और न ही उन्हें काम के बदले कोई निश्चित वेतन मिलता है.
अख़बार या चैनल में प्रकाशित, प्रसारित होने वाले विज्ञापनों का एक छोटा हिस्सा ही उनकी आय का अकेला स्रोत होता है. अगर कोई घटना हो जाए तो मीडिया घराने पल्ला झाड़ लेते हैं. फिर चाहे बस्तर में दरभा के पत्रकार संतोष यादव हों, सोमारु नाग या गीदम के पत्रकार प्रभात सिंह . तत्कालीन उत्तर प्रदेश के गढ़वाल में अमर उजाला के स्टिंगर उमेश डोभाल का मामला पहला चर्चित मामला था जिसमे शराब माफिया मनमोहन सिंह नेगी के हाथों जान गंवाने वाले स्टिंग उमेश डोभाल के परिवार की जिम्मेदारी से हाथ झाड लिए थे. इसी अमर उजाला ने कालांतर में उमेश डोभाल को अपनी ब्रांड वैल्यू को इस्तेमाल में कोई शर्म नहीं दिखाई.
जब इन पत्रकारों को माओवादी समर्थक बता कर गिरफ़्तार किया गया तो जिन संस्थानों के लिए ये काम करते थे, उन्होंने ही सबसे पहले इनसे पल्ला झाड़ा. उमेश की हत्या हुई तो अमर उजाला ने हाथ झाल लिए. बाद में उसका नाम ब्रांडिंग में इस्तेमाल करना शुरु कर दिया.
हालांकि बाद में पत्रकारों को अदालत ने सभी मामलों में ससम्मान छोड़ा. लेकिन जेल और मुक़दमों में खुद और परिवार ने जो प्रताड़ना झेली, उसकी भरपाई संभव नहीं है.
दंतेवाड़ा के एक पत्रकार कहते हैं, “कस्बाई रिपोर्टर के रिपोर्ट की तारीफ़ संपादक भी करेंगे. लेकिन आप जैसे ही मानदेय की बात करेंगे तो उनके मुंह का जायका बिगड़ जाता है. ऐसे में बस्तर के पत्रकारों की मज़बूरी है कि वो पत्रकारिता के अलावा भी आर्थिक सुरक्षा को दूसरे काम करें. लेकिन पत्रकारिता की आड़ में जब काम शुरु हो या वसूली हो तो संकट गहरा जाता है.”
रायपुर प्रेस क्लब अध्यक्ष प्रफुल्ल ठाकुर के अनुसार पत्रकारों की सुरक्षा को लेकर ‘हम सब चिंतित हैं.’ लेकिन पत्रकार सुरक्षा क़ानून, फ़ाइलों से बाहर धरातल पर निकल ही नहीं पाता. इस सुरक्षा क़ानून से कोई चमत्कारिक बदलाव नहीं आएगा लेकिन कम से कम पत्रकारों को बेहतरी की उम्मीद तो रहेगी. किसी पत्रकार के नाम-पते के साथ चिट्ठी या किसी माओवादी साहित्य की बरामदगी, पुलिस के लिए बहुत आसान है. ऐसी चिट्ठियां और साहित्य, पुलिस के पास पर्याप्त मात्रा में होती हैं.”
प्रफुल्ल के अनुसार, “कांग्रेस सरकार ने अपने कार्यकाल में क़ानून बनाया भी लेकिन प्रस्तावित क़ानून के सारे प्रावधान बदल दिए गए.”
विष्णुदेव साय, छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री का बयान
हालांकि विधानसभा अध्यक्ष और राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री रमन सिंह ने संभावना जताई कि इस बजट सत्र में पत्रकार सुरक्षा क़ानून विधानसभा में पेश किया जा सकता है.
राज्य के मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय ने कहा, “पत्रकार सुरक्षा कानून की विसंगतियां ध्यान में आयी हैं. उसे जिस नीयत से लागू किया जाना था, वैसा नहीं हो पाया . संवैधानिक प्रावधानों की मर्यादा में जैसा भी सुधार अपेक्षित हो, उसे करने को सरकार प्रतिबद्ध है. इस संबंध में सभी हितधारकों से विचार विमर्श कर कानून प्रभावी बनाया जाएगा.”
ज़ाहिर है, तब तक तो बस्तर और छत्तीसगढ़ के पत्रकारों के हिस्से चुनौतियां ही चुनौतियां हैं, ग्रामीण पत्रकारों को तो अभी इन चुनौतियों का सामना अकेले ही करना होगा.
ठेकेदार सुरेश का षड्यंत्र, पत्रकार की निर्मम हत्या, SIT का सनसनीखेज अनावरण… मुकेश चंद्राकर हत्या आंतरिक कथा
छत्तीसगढ़ के बीजापुर जिले में पत्रकार मुकेश चंद्राकर मर्डर केस की जांचकर्ता एसआईटी ने कई बड़े अनावरण किए. जैसे कि मुख्य आरोपित ठेकेदार सुरेश चंद्राकर ने इस हत्याकांड से कुछ दिन पहले 27 दिसंबर को अपने बैंक अकाउंट से बड़ी रकम निकाली थी. सुरेश ने ही अपने भाईयों से मिलकर मुकेश की हत्या का षड्यंत्र रचा. पूछताछ में आरोपितों ने हत्या की वजह खराब सड़क संबंधित खबर बताई है.
छत्तीसगढ़ में मर्डर केस की जांच में पहली बार डिजिटल तकनीक का इस्तेमाल बड़े पैमाने पर हुआ. एसआईटी ने जांच में AI और Osint Tool इस्तेमाल किया. हत्या में इस्तेमाल लोहे के रॉड सहित अन्य सामान ढूंढ लिए. ये बीजापुर गीदम नेशनल हाईवे पर तुमनार नदी के पास छिपाये मिले. हत्या में इस्तेमाल चार गाड़ियां भी कब्जाई हैं.
सुरेश सड़क निर्माण में भ्रष्टाचार की खबरों से नाराज था
एसआईटी के मुताबिक, मुख्य आरोपित सुरेश चंद्राकर सड़क निर्माण कार्य में भ्रष्टाचार की खबरों से नाराज था. 1 जनवरी से गायब मुकेश चंद्राकर (33 वर्ष) का शव 3 जनवरी को बीजापुर शहर के चट्टनपारा बस्ती में सुरेश चंद्राकर की संपत्ति में सेप्टिक टैंक में मिला.
कमरे में बंद कर मुकेश को रोड से बेरहमी से पीट की हत्या
पुलिस ने सुरेश चंद्राकर को 5 जनवरी को हैदराबाद से पकड़ा, जबकि उसके भाई रितेश, दिनेश चंद्राकर और साइट सुपरवाइजर महेंद्र रामटेके पहले ही पकड़े गए थे. चारों में रितेश और महेंद्र ने क्राइम सीन के 17 कमरों में से कमरा नंबर 11 में मुकेश चंद्राकर पर लोहे की रॉड से हमला में घातक चोटें पहुंचा शव सेप्टिक टैंक में कंक्रीट से ढंका।
हत्या प्रमाण छिपाने को नदी में फेंका मोबाइल
दिनेश चंद्राकर 1 जनवरी रात हत्या बाद प्रमाण छिपाने और सुरेश चंद्राकर की पूर्व नियोजित योजनानुसार आरोपित भागने में मदद करने आया था. सुरेश चंद्राकर की हत्या समय शहर से बाहर रहने की योजना थी, ताकि उस पर संदेह न हो. रितेश, दिनेश और महेंद्र ने षड्यंत्रपूर्वक मुकेश चंद्राकर के दो मोबाइल फोन बीजापुर से 65 किलोमीटर दूर तुमनार नदी में फेंके.
भ्रष्टाचार प्रकाशन से परेशान था सुरेश
सुरेश चंद्राकर
इतना ही नहीं, आरोपितों ने मुकेश का मोबाइल फोन फेंकने से पहले पत्थरों से तोड़ा. पुलिस ने गोताखोरों से तलाशी कराई, लेकिन फोन अभी तक नहीं मिले. पूछताछ में सुरेश चंद्राकर ने बताया कि मुकेश उसका रिश्तेदार था. वह अपने चैनल पर उसके खिलाफ खबरें चला रहा था, जिससे उसके काम पर जांच बैठ गई. इससे वो परेशान था.
पुलिस की 50 लोगों से पूछताछ में मिले कई महत्वपूर्ण प्रमाण
एसआईटी के अनुसार जांच टीम ने चारों आरोपितों को अलग-अलग रखकर दो दिन उनके मोबाइल जांचे. कॉल डिटेल रिकॉर्ड (सीडीआर) के आधार पर पूछताछ हुई . उनके मोबाइल फोन से डिलीट डाटा रिकवर होना है. 50 से ज्यादा लोगों से पूछताछ हुई है. उनसे महत्वपूर्ण प्रमाण मिले हैं. आरोपितों की संपत्तियों की भी जानकारी जुटाई जा रही है.
15 दिनों की न्यायिक रिमांड पर चारों मुख्य आरोपित
फिलहाल चारों आरोपित 15 दिनों की न्यायिक रिमांड पर हैं. क्राइम सीन अभी भी पूरी तरह सील है. हर पहलू की गहन जांच हो रही है. एसआईटी टीम ने सभी पूछताछ, तलाशी, जब्ती की वीडियोग्राफी की है. औपचारिक साक्ष्य लिये है. जांच में पुलिस को बेहद महत्वपूर्ण साक्ष्य मिले हैं जो एसआईटी ने केस डायरी में संकलित किये हैं.
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