नेहरु-इंदिरा छाप समाजवाद से आया भारत में 1991 का अर्थसंकट जिससे जरुरी हुआ आर्थिक सुधार
नेहरू चचा ने इतना सशक्त भारत बनाया कि 𝟏𝟗𝟖𝟒 में जब इंदिरा जी की मृत्यु हुई और राजीव जी प्रधानमंत्री बने तो देश मे आम नागरिक को दो बोरी सीमेन्ट लेने के लिये तहसीलदार से परमिट लेना पड़ता था।
एक किलो चीनी खरीदने तक के लिये भी परमिट लगता था। शादी विवाह में एक क्विंटल चीनी लेने के लिये तो लोग महीनों पहले से सोर्स सिफारिश खोजते फिरते थे।
तब भारत में एलपीजी के कनेक्शन के लिये 𝟐 से 𝟑 साल का समय लगता था। यकीन मानिए घर में एलपीजी होते हुए भी गृहणियां स्टोव जलाती थीं, क्योंकि उन्हें डर रहता था कि अगर गैस खत्म हो गयी तो ब्लैक और लम्बी लम्बी लाइनों में रात भर लगने के बाद अगला पूरा दिन खड़े रहकर गैस सिलेंडर भरवाना बहुत बड़ा काम था।
ये वो ज़माना था जब देश मे बजाज स्कूटर प्रीमियम पर बिकते थे, मतलब 𝟓𝟎𝟎𝟎 का स्कूटर और 𝟔𝟎𝟎𝟎 ब्लैक तब 𝟏𝟏,𝟎𝟎𝟎 में स्कूटर मिलेगा। तब टेलीफोन के कनेक्शन मिलने में 𝟕 से 𝟏𝟎 साल लग जाते थे और बहुत जबरदस्त ब्लैक होती थी।
उस नेहरु खानदान के शासनकाल के जमाने में हर किसी वस्तु का ब्लैक मार्केटिंग होता था। साथ ही हर खाद्य पदार्थ और सीमेंट जैसी अनेक वस्तुओं में मिलावट होती थीं।
आधुनिक भारत के निर्माता नेहरू चचा कितने बड़े युगद्रष्टा थे इसका एक और क़िस्सा सुनिये। नेहरू चचा ने 𝟏𝟗𝟓𝟕 में राजधानी दिल्ली के विकास के लिए 𝐃𝐃𝐀 की स्थापना की।
ऐसी एजेंसी जो मास्टर प्लान बनाती थी उसमें अगले 𝟓𝟎 वर्षों की ही प्लानिंग करती थी कि 𝟓𝟎 साल बाद ये शहर कैसा होगा। इसकी प्लानिंग करके ही शहर बसाया जाता है। उसकी सड़कें, पुल, सार्वजनिक परिवहन, रेलवे स्टेशन, बिजली पानी की व्यवस्था सब 𝟓𝟎 साल का सोच कर की जाती है।
नेहरू चाचा कहते थे “मेरे सपनों का भारत” चचा ने सपने में भी कभी नही सोचा था कि दिल्ली वाले जिंदगी में कभी कार तो क्या स्कूटर भी खरीद पाएंगे, इसलिये 𝟔𝟎 और 𝟕𝟎 के दशक में बने दिल्ली के 𝐃𝐃𝐀 फ्लैट्स देख लीजिये। किसी फ्लैट में कार तो छोड़ो स्कूटर खड़ा करने तक की जगह नहीं है।
नेहरू चिचा कितने बड़े युगद्रष्टा थे इसकी एक और मिसाल ‘𝐈𝐧𝐝𝐢𝐚 𝐔𝐧𝐛𝐨𝐮𝐧𝐝𝐬’ नामक किताब के लेखक गुरुचरण दास ने दी है। आप 𝟔𝟎 और 𝟕𝟎 के दशक में 𝐏&𝐆 के 𝐂𝐄𝐎 रहे हैं। नेहरू और इंदिरा के भारत में किसी कंपनी को टूथपेस्ट की ज़्यादा ट्यूब बनाने के लिए भी भारत सरकार से आज्ञा लेनी पड़ती थी।
𝟕𝟎 के दशक में एक बार तमिलनाडु में फ्लू फैल गया।𝐏&𝐆 का मशहूर विक्स इन्हेलर और विक्स वेपोरब तब भी बनता था। फ्लू फैला तो विक्स बाजार से गायब हो गई। कंपनी ने भारत सरकार से 𝟓 लाख अतिरिक्त विक्स इन्हेलर बनाने की इजाजत मांगी। वो इजाजत डेढ़ महीने में आयी तब तक फ्लू ठीक हो चुका था।
बजाज के पास तब भी क्षमता थी कि वे लाखों स्कूटर बना देते पर नेहरू और इंदिरा ने उनको कभी भी बड़ी संख्या में स्कूटर बनाने नहीं दिए जिससे ब्लैक मार्केटिंग बंद हो सके।
गुरुचरण दास लिखते हैं कि बिड़ला जी के बेटे आदित्य बिड़ला ने भारत मे जब हिंडाल्को खड़ी की तो नेहरू इंदिरा ने उनको इतना परेशान किया कि उन्होंने फिर कभी देश में लम्बे समय तक कोई फैक्ट्री नहीं लगाई। जबकि उन्होंने अपने जीवन मे देश के बाहर 𝟑𝟐 बहुत बड़ी बड़ी फैक्टरी लगाई।
🤔😳😢
इसलिये आज के बाद यदि आपके मित्र कांग्रेसी ये कहे कि नेहरू जी ने 𝐈𝐈𝐓, 𝐀𝐈𝐈𝐌𝐒, 𝐈𝐒𝐑𝐎 बनाए तो उसके मुंह पर यह पोस्ट मारिये.
सुधारों के लिए भारत को संकट का इंतजार था, जो नेहरू-इंदिरा के समाजवाद से 1991 में आया
भारत में केंद्र द्वारा नियोजित अर्थव्यवस्था की शुरुआत 1950 के दशक में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के अधीन हुई थी लेकिन 1991 में आकर वह अचानक चरमरा गई और देश भारी संकट में फंस गया.
तीन दशक पहले जुलाई 1991 में भारत आर्थिक उदारीकरण की राह पर चल पड़ा था. व्यापार और उद्योग में उदारीकरण जरूरी हो गया था क्योंकि अर्थव्यवस्था अचानक चरमरा गई और केंद्रीय नियोजन के तहत सख्त नियंत्रणों और पाबंदियों के कारण संकट आ खड़ा हुआ था.
आर्थिक सुधारों की शुरुआत करने से पहले अर्थव्यवस्था घुटने टेकने की हालत में पहुंच गई थी.
यह नौबत क्यों आई
आज़ादी के बाद भारत ने 1950 के दशक में प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में केंद्र द्वारा नियोजित अर्थव्यवस्था को अपनाया. इसने भारतीय अर्थव्यवस्था के मूल चरित्र को बदल दिया.
नेहरू ने उद्योगों के लिए सोवियत मॉडल को अपनाया, जिसमें सरकार को ही देश में औद्योगिक उत्पादों की मात्रा और कीमत के बारे में फैसले करने होते हैं.
दरअसल, बाज़ार ही उत्पादकों को यह संकेत देता है कि क्या उत्पादन करना है और कितना उत्पादन करना है. लेकिन बाज़ार की यह भूमिका योजना आयोग में बैठे नौकरशाहों और अर्थशास्त्रियों का समूह निभाने लगा. वह फैसला करने लगा कि देश की आबादी के उपयोग के लिए कितना इस्पात, कितना तांबा, कितनी कारों और कितने स्कूटरों का उत्पादन होगा, उनका उत्पादन कौन करेगा और किन कीमतों पर बेचेगा. कितने कच्चे माल का आयात किया जाएगा. वे ‘इनपुट-आउटपुट’ के आंकड़ों के साथ बैठते और उद्योग को उत्पादन के लिए तथा व्यापारियों को जरूरी चीजों के आयात के लाइसेंस जारी करते थे.
किसी नयी चीज का शायद ही उत्पादन किया जाता था और न किसी नयी तकनीक को अपनाया जाता था. भारतीय नौकरशाह ऐसे सूट पहनकर विदेश में सम्मेलनों में भाग लेने जाते, जिनसे किरोसिन की महक आती थी क्योंकि ड्राइक्लीनिंग मशीन के आयात की इजाजत नहीं थी.
पुरानी तकनीक का इस्तेमाल करने और उन्हीं पुराने मॉडलों का उत्पादन करते रहने के कारण भारत का उद्योग प्रतिस्पर्द्धा से बाहर हो गया और अपना माल विदेश में बेचने में असमर्थ हो गया. रुपये की विनिमय दर पर नियंत्रण रखा जाता था और उसका काफी अवमूल्यन हुआ जिससे निर्यातों में और कमी आई.
सरकार ने राजस्व बढ़ाने के लिए टैक्स दरों में वृद्धि करने की कोशिश की और जब इससे बात नहीं बनी तो उसने बैंकों को अपने यहां जमा आधी राशि उसे कर्ज के रूप में देने के लिए मजबूर किया. जब कर्ज के स्रोत सूख गए तो सरकार रिजर्व बैंक को ज्यादा नोट छापने के लिए कह दिया करती.
नतीजतन, मुद्रास्फीति और कीमतें बढ़ती गईं और संकट गहराता गया, जबकि बड़ी आबादी पहले से ही गरीबी रेखा के नीचे थी. अभावों के कारण राशनिंग करने पड़ी, जिसने लोगों की कतारों को लंबा किया और कालाबाजारी बढ़ी.
उपभोक्ताओं को न केवल नई कार, स्कूटर या फोन के लिए वर्षों इंतजार करना पड़ता बल्कि चीनी, गेंहू, चावल, किरोसिन आदि के लिए घंटों कतार में खड़ा रहना पड़ता.
भुगतान संतुलन का संकट
नियोजित अर्थव्यवस्था का पतन होना ही था क्योंकि उसकी कार्यकुशलता निरंतर गिरती जा रही थी. भारत तेल के आयात के लिए भुगतान करने में असमर्थ हो गया.
1970 के दशक में तेल की कीमतों में वृद्धि और 1991 में कुवैत युद्ध ने इसकी कीमत में और वृद्धि कर दी जिसके चलते भारत को भुगतान संतुलन के संकट का सामना करना पड़ा. भारत अपने आयातों के लिए भुगतान करने की स्थिति में नहीं रह गया. व्यापार क्रेडिट आगे बढ़ाने से रोक दिया गया और 1991 के मध्य आकर अचानक देश को घुटने टेकने पड़ गए.
पी.वी. नरसिम्हा राव की कांग्रेस सरकार भीख का कटोरा लेकर अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोश (आईएमएफ) के दरवाजे पर पहुंच गई और उसे उसकी शर्तों को मान कर अपने उद्योगों तथा आयातों को लाइसेंस राज से मुक्त करना पड़ा. वित्तीय घाटे को काबू में लाना पड़ा, रुपये का भारी अवमूल्यन करके बाज़ार के हवाले करना पड़ा.
जगदीश भगवती सरीखे अर्थशास्त्री, खुद सरकार द्वारा गठित विशेषज्ञ कमिटियां, स्वतंत्र पार्टी और जनसंघ जैसी राजनीतिक पार्टियां इन बदलावों की अरसे से मांग कर रही थीं. ये सब नेहरू द्वारा लागू और इंदिरा गांधी द्वारा मजबूत बनाए गए सोवियत मॉडल के केंद्रीय नियोजन का विरोध करती रही थीं.
आईएमएफ, विश्व बैंक जैसे अंतरराष्ट्रीय संगठन और कई अर्थशास्त्री भी कह चुके थे कि भारत गरीबी और नीची वृद्धि दर के जाल में किस तरह उलझ गया है. वे इन बदलावों की मांग कर रहे थे, खासकर सोवियत संघ के विघटन के बाद.
जरूरी था यह संकट
कई प्रेक्षक प्रायः कहते रहे हैं कि भारत को सुधारों के लिए संकट का इंतजार था. सुधारों को लागू करने से पहले कोई राजनीतिक आम सहमति बनाने की कोशिश नहीं की गई.
तत्कालीन वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने तब संसद में जो भाषण दिया था उससे कांग्रेस के लोगों समेत कई को झटका लगा था. आईएमएफ के साथ गुप्त बातचीत हुई थी और किसी को पता नहीं था कि आगे क्या होने वाला है.
वामदलों से लेकर सारे विपक्ष और व्यापार संघों की अनदेखी की गई थी और हालत यह थी कि अगर आईएमएफ से कर्ज नहीं लिया जाता तो सारा परिवहन रुक जाता और आयात चालू नहीं हो पाते.
सुधार जरूरी थे और देश को पाबंदियों, लालफीताशाही, कूपमंडूकता के दशकों से बाहर निकलना था. अब पीछे मुड़कर देखने पर लगता है कि भारत ने सौभाग्य से संकट का सामना कर लिया. सुधारों से पहले, लाइसेंस के बिना औद्योगिक उत्पादन और अंतरराष्ट्रीय व्यापार की इजाजत नहीं थी.
कलम की एक जुंबिश से यह सब बदल गया. जापान, कोरिया, अमेरिका, ब्रिटेन, यूरोप यानी दुनियाभर में विकसित हो रही नयी तकनीक और आविष्कारों समेत विदेशी कंपनियों और निवेश के लिए रास्ता खुल गया.
इसके बाद भारत से निर्यात में तेजी से वृद्धि हुई. देश नीची वृद्धि दर के जाल से मुक्त हुआ और लाखों लोगों को गरीबी रेखा से ऊपर लाया गया, बच्चों को भोजन, पोषण और शिक्षा उपलब्ध कराया जाने लगा.
आज तीस वर्ष बाद, हम जान गए हैं कि वह जो कदम उठाया गया वह सही था. लेकिन क्या इतना ही काफी है? इस सवाल पर हम अगले सप्ताह विचार करेंगे.
(इला पटनायक एक अर्थशास्त्री और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी में प्रोफेसर हैं. व्यक्त विचार निजी हैं। 17 जुलाई, 2021 )