‘संविधान के शंकराचार्य’ केशवानंद भारती का स्वर्गारोहण

 

संविधान के ‘मूल संरचना सिद्धांत’ को निर्धारित करने वाले ऐतिहासिक फ़ैसले के प्रमुख याचिकाकर्ता रहे केशवानंद भारती का निधन हो गया है. वे 79 वर्ष के थे.

उन्होंने रविवार सुबह केरल के उत्तरी ज़िले कासरगोड में स्थित इडनीर के अपने आश्रम में अंतिम साँस ली.

केशवानंद भारती इडनीर मठ के प्रमुख थे. मठ के वकील आई वी भट ने  बताया, “अगले हफ़्ते भारती की हार्ट वाल्व रिप्लेसमेंट सर्जरी होनी थी, लेकिन रविवार सुबह अचानक उनकी मृत्यु हो गई.”

केशवानंद भारती का नाम भारत के इतिहास में दर्ज रहेगा. 47 साल पहले सुप्रीम कोर्ट ने ‘केशवानंद भारती बनाम स्टेट ऑफ़ केरल’ मामले में एक ऐतिहासिक निर्णय सुनाया था जिसके अनुसार ‘संविधान की प्रस्तावना के मूल ढांचे को बदला नहीं जा सकता.’

इस फ़ैसले के कारण उन्हें ‘संविधान का रक्षक’ भी कहा जाता था. हालांकि जिस मामले के लिए उन्होंने अदालत का दरवाज़ा खटखटाया था, उसका विषय अलग था.

मिसाल बना ये मामला
दरअसल, केरल में इडनीर नाम का एक हिन्दू मठ है. केशवानंद भारती इसी मठ के प्रमुख थे.

इडनीर मठ केरल सरकार के भूमि-सुधार क़ानूनों को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट गया था.

दरअसल इस क़ानून के तहत मठ की 400 एकड़ में से 300 एकड़ ज़मीन पट्टे पर खेती करने वाले लोगों को दे दी गई थी.

केशवानंद भारती
उन्होंने 29वें संविधान संशोधन को भी चुनौती दी थी जिसमें संविधान की नौवीं अनुसूची में केरल भूमि सुधार अधिनियम, 1963 शामिल था.

इसकी वजह से इस क़ानून को चुनौती नहीं दी जा सकती थी क्योंकि इससे संवैधानिक अधिकारों का हनन होता.

भट कहते हैं कि “भूमि सुधार क़ानून के ज़रिए धार्मिक संस्थानों के (संविधान के अनुच्छेद-25 के तहत दिये गए) अधिकार छीन लिए गए थे.”

लेकिन स्वामी जी, जिन्हें केरल का शंकराचार्य भी कहा जाता है, वे संवैधानिक अधिकारों के मसले को क़ानूनी चुनौती देने वाला चेहरा बने. हालांकि उस मामले में कुछ और भी याचिकाकर्ता थे.

इस मामले के ज़रिए 1973 में सुप्रीम कोर्ट के सामने ये सवाल आया कि क्या संसद को यह अधिकार है कि वो संविधान की मूल प्रस्तावना को बदल सके?

‘मठ का नहीं, लोगों का फ़ायदा हुआ’
इस मामले में भारती को व्यक्तिगत राहत तो नहीं मिली लेकिन ‘केशवानंद भारती बनाम स्टेट ऑफ़ केरल’ मामले की वजह से एक महत्वपूर्ण संवैधानिक सिद्धांत का निर्माण हुआ जिसने संसद की संशोधन करने की शक्ति को सीमित कर दिया.

इस मामले की सुनवाई 68 दिनों तक चली थी और मुख्य न्यायाधीश एस एम सिकरी की अध्यक्षता वाली 13 जजों की बेंच ने 6 के मुकाबले 7 जजों यानि एक के बहुमत से 703 पेजों में यह ऐतिहासिक फ़ैसला सुनाया था.

हालांकि, जजों की राय इस पर बँटी हुई थी, मगर 13 जजों की बेंच में से सात जजों ने बहुमत से फ़ैसला दिया गया कि ‘संसद की शक्ति संविधान संशोधन करने की तो है लेकिन संविधान की प्रस्तावना के मूल ढांचे को नहीं बदला जा सकता और कोई भी संशोधन प्रस्तावना की भावना के ख़िलाफ़ नहीं हो सकता.’

यह मामला इसलिए भी ऐतिहासिक रहा क्योंकि इसने संविधान को सर्वोपरि माना.

न्यायिक समीक्षा, पंथनिरपेक्षता, स्वतंत्र चुनाव व्यवस्था और लोकतंत्र को संविधान का मूल ढांचा कहा गया और साफ़ किया गया कि संसद की शक्तियां संविधान के मूल ढांचे को बिगाड़ नहीं सकतीं, संविधान की प्रस्तावना इसकी आत्मा है और पूरा संविधान इसी पर आधारित है.

मठ के वकील भट कहते हैं कि “केशवानंद भारती मामले को मिली प्रसिद्धि के बावजूद मठ को इससे फ़ायदा नहीं हुआ, बल्कि भारत के लोगों को इसका फ़ायदा हुआ. ”
विदेशी अदालतों ने भी ली प्रेरणा
केशवानंद भारती बनाम स्टेट ऑफ़ केरल मामले के ऐतिहासिक फ़ैसले से कई विदेशी संवैधानिक अदालतों ने भी प्रेरणा ली.

कई विदेशी अदालतों ने इस ऐतिहासिक फ़ैसले का हवाला दिया.

लाइव लॉ के मुताबिक़, केशवानंद के फ़ैसले के 16 साल बाद, बांग्लादेश के सुप्रीम कोर्ट ने भी अनवर हुसैन चौधरी बनाम बांग्लादेश में मूल सरंचना सिद्धांत को मान्यता दी ‌थी.

वहीं बेरी एम बोवेन बनाम अटॉर्नी जनरल ऑफ़ बेलीज के मामले में, बेलीज कोर्ट ने मूल संरचना सिद्धांत को अपनाने के लिए केशवानंद केस और आईआर कोएल्हो केस पर भरोसा किया.

केशवानंद केस ने अफ्रीकी महाद्वीप का भी ध्यान आकर्षित किया. केन्या, अफ्रीकी देश युगांडा, अफ्रीकी द्वीप- सेशेल्स के मामलों में भी केशवानंद मामले के ऐतिहासिक फ़ैसले का ज़िक्र कर भरोसा जताया गया.

इतना ऐतिहासिक क्यों था फ़ैसला
संजय हेगड़े
सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील संजय हेगड़े कहते हैं कि मूल रूप से केशवानंद भारती मामले ने सुनिश्चित किया कि न्यायिक समीक्षा की जा सकती है
सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील संजय हेगड़े ने बीबीसी हिंदी से कहा, “मूल रूप से केशवानंद भारती मामले ने सुनिश्चित किया कि न्यायिक समीक्षा की जा सकती है. बुनियादी संरचना लक्ष्मण रेखा है, जिससे आगे सरकार संविधान को संशोधित नहीं कर सकती.”

एक अन्य सुप्रीम कोर्ट वकील कलीस्वरन राज ने कहा, “हमारे संविधान में निषेधात्मक धारा को छोड़कर सबकुछ है. जैसे कि जर्मन संविधान में ‘एटर्निटी क्लॉज़’ जिसके तहत आप संविधान की बुनियादी संरचना को नहीं बदल सकते हैं. यह धारा उस कमी को भर देती है.”

राज साथ ही कहते हैं, “इस मामले का निर्णय वास्तव में, भारत में न्यायिक सक्रियता का पहला उदाहरण है जो हमने जस्टिस वीआर कृष्णा अय्यर और जस्टिस पीएन भगवती के योगदान से पहले नहीं देखा है. इस मामले की वजह से संविधान का संश्लेषण कर एक क़ानून बना. इस फ़ैसले में आपको बहुत सारी रचनात्मकता मिलेगी.”

वहीं हेगड़े कहते हैं, “उस दिन (24 अप्रैल 1973) भारत को एकजुट करने की घटनाएं हुईं. पहली केशवानंद भारती मामले में फ़ैसला आया और दूसरा उसी दिन सचिन तेंदुलकर का जन्म हुआ.

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केशवानंद भारती : वह धर्मगुरु जिसकी कोशिशों से भारत एक लोकतंत्र के रूप में बचा रह सका
केशवानंद भारती के मामले के चलते संसद और न्यायपालिका के बीच वह संतुलन कायम हो सका जो इस फैसले के पहले के 23 सालों में संभव नहीं हो सका था
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देश के न्यायिक इतिहास में केशवानंद भारती का नाम कौन नहीं जानता होगा? 24 अप्रैल, 1973 को सुप्रीम कोर्ट द्वारा ‘केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य’ के मामले में दिए गए एक ऐतिहासिक फैसले के चलते कोर्ट-कचहरी की दुनिया में वे लगभग अमर हो गए हैं. हालांकि बहुतों को यह जानकर आश्चर्य हो सकता है कि न्यायिक दुनिया में अभूतपूर्व लोकप्रियता के बावजूद केशवानंद भारती न तो कभी जज रहे हैं और न ही वकील. उनकी ख्याति का कारण तो बतौर मुवक्किल सरकार द्वारा अपनी संपत्ति के अधिग्रहण को अदालत में चुनौती देने से जुड़ा रहा है. वैसे वे दक्षिण भारत के बहुत बड़े संत हैं.

केरल के शंकराचार्य

कासरगोड़ केरल का सबसे उत्तरी जिला है. पश्चिम में समुद्र और पूर्व में कर्नाटक से घिरे इस इलाके का सदियों पुराना एक शैव मठ है जो एडनीर में स्थित है. यह मठ नवीं सदी के महान संत और अद्वैत वेदांत दर्शन के प्रणेता आदिगुरु शंकराचार्य से जुड़ा हुआ है. शंकराचार्य के चार शुरुआती शिष्यों में से एक तोतकाचार्य थे जिनकी परंपरा में यह मठ स्थापित हुआ था. यह ब्राह्मणों की तांत्रिक पद्धति का अनुसरण करने वाली स्मार्त्त भागवत परंपरा को मानता है.

इस मठ का इतिहास करीब 1,200 साल पुराना माना जाता है. यही कारण है कि केरल और कर्नाटक में इसका काफी सम्मान है. शंकराचार्य की क्षेत्रीय पीठ का दर्जा प्राप्त होने के चलते इस मठ के प्रमुख को ‘केरल के शंकराचार्य’ का दर्जा दिया जाता है. ऐसे में स्वामी केशवानंद भारती केरल के मौजूदा शंकराचार्य कहे जाते हैं. उन्होंने महज 19 साल की अवस्था में संन्यास लिया था जिसके कुछ ही साल बाद अपने गुरू के निधन की वजह से वे एडनीर मठ के मुखिया बन गए. 20 से कुछ ही ज्यादा की उम्र में यह जिम्मा उठाने वाले स्वामी जी पिछले 57 सालों से इस पद पर मौजूद हैं. हालांकि उनके सम्मान में उन्हें ‘श्रीमत् जगदगुरु श्रीश्री शंकराचार्य तोतकाचार्य श्री केशवानंद भारती श्रीपदंगलावारू’ के लंबे संबोधन से बुलाया जाता है.

एडनीर मठ का न केवल अध्यात्म के क्षेत्र में दखल रहा है बल्कि संस्कृति के अन्य क्षेत्रों जैसे नृत्य, कला, संगीत और समाज सेवा में भी यह काफी योगदान करता रहा है. भारत की नाट्य और नृत्य परंपरा को बढ़ावा देने के लिए कासरगोड़ और उसके आसपास के इलाकों में दशकों से एडनीर मठ के कई स्कूल और कॉलेज चल रहे हैं.

उनकी परेशानी क्या थी?

इसके अलावा यह मठ सालों से कई तरह के व्यवसायों को भी संचालित करता है. साठ-सत्तर के दशक में कासरगोड़ में इस मठ के पास हजारों एकड़ जमीन भी थी. यह वही दौर था जब ईएमएस नंबूदरीपाद के नेतृत्व में केरल की तत्कालीन वामपंथी सरकार भूमि सुधार के लिए काफी प्रयास कर रही थी. समाज से आर्थिक गैर-बराबरी कम करने की कोशिशों के तहत राज्य सरकार ने कई कानून बनाकर जमींदारों और मठों के पास मौजूद हजारों एकड़ की जमीन अधिगृहीत कर ली. इस चपेट में एडनीर मठ की संपत्ति भी आ गई. मठ की सैकड़ों एकड़ की जमीन अब सरकार की हो चुकी थी. ऐसे में एडनीर मठ के युवा प्रमुख स्वामी केशवानंद भारती ने सरकार के इस फैसले को अदालत में चुनौती दी.

केरल हाईकोर्ट के समक्ष इस मठ के मुखिया होने के नाते 1970 में दायर एक याचिका में केशवानंद भारती ने अनुच्छेद 26 का हवाला देते हुए मांग की थी कि उन्हें अपनी धार्मिक संपदा का प्रबंधन करने का मूल अधिकार दिलाया जाए. उन्होंने संविधान संशोधन के जरिए अनुच्छेद 31 में प्रदत्त संपत्ति के मूल अधिकार पर पाबंदी लगाने वाले केंद्र सरकार के 24वें, 25वें और 29वें संविधान संशोधनों को चुनौती दी थी. इसके अलावा केरल और केंद्र सरकार के भूमि सुधार कानूनों को भी उन्होंने चुनौती दी. जानकारों के अनुसार स्वामी केशवानंद भारती के प्रतिनिधियों को सांविधानिक मामलों के मशहूर वकील नानी पालकीवाला ने सलाह दी थी कि ऐसा करने से मठ को उसका हक दिलाया जा सकता है. हालांकि केरल हाईकोर्ट में मठ को कामयाबी नहीं मिली जिसके बाद यह मामला आखिरकार सुप्रीम कोर्ट चला गया।

देश की शीर्ष अदालत ने पाया कि इस मामले से कई संवैधानिक प्रश्न जुड़े हैं. उनमें सबसे बड़ा सवाल यही था कि क्या देश की संसद के पास संविधान संशोधन के जरिए मौलिक अधिकारों सहित किसी भी अन्य हिस्से में असीमित संशोधन का अधिकार है. इसलिए तय किया गया कि पूर्व के गोलकनाथ मामले में बनी 11 जजों की संविधान पीठ से भी बड़ी पीठ बनाई जाए. इसके बाद 1972 के अंत में इस मामले की लगातार सुनवाई हुई जो 68 दिनों तक चली. अंतत: 703 पृष्ठ के अपने लंबे फैसले में केवल एक वोट के अंतर से शीर्ष अदालत ने स्वामी केशवानंद भारती के विरोध में फैसला दिया.

एडनीर मठ के शंकराचार्य वैसे तो यह मामला हार गए थे, लेकिन इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने जो फैसला दिया वह आज भी मिसाल है. इससे संसद और न्यायपालिका के बीच वह संतुलन कायम हो सका जो इस फैसले के पहले के 23 सालों में संभव नहीं हो सका था. और इसके साथ ही अपनी बाजी हारकर भी स्वामी केशवानंद भारती इतिहास के ‘बाजीगर’ बन गए थे.

और अंत में…

यह बात किसी को भी हैरान कर सकती है कि स्वामी केशवानंद भारती को जिस शख्स (नानी पालकीवाला) ने अपनी प्रतिभा के दम पर लोकप्रियता दिलाई थी, उनसे वे फैसला आने तक नहीं मिले थे. वहीं मुकदमे की सुनवाई के दौरान जब अखबारों में उनका नाम सुर्खियों में छाया रहता था, तो उन्हें इसका कारण कुछ समझ में नहीं आ रहा था. बताया जाता है कि स्वामी जी अपने मामले के बारे में समझते थे कि यह केवल संपत्ति विवाद का मामला है. उन्हें यह बिल्कुल भी पता नहीं था कि उनके मामले ने ऐसे सवाल खड़े किए हैं ​जिससे भारतीय लोकतंत्र दो दशकों से जूझ रहा था. माना जाता है कि अंतत: इस मामले में फैसला आते ही उनकी निजी समस्या भले ही न दूर हो सकी, लेकिन देश का बहुत बड़ा कल्याण हो गया.

 

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