भगतसिंह, सुखदेव, राजगुरु के गद्दार फणी घोष को कुल्हाड़ी से काट फांसी कमाई थी बैकुंठ शुक्ल ने

बैकुंठ शुक्ल की पुण्यतिथि आज, महज 28 की उम्र में फांसी के फंदे को चूम लिया था

महान स्वतंत्रता सेनानी बैकुंठ शुक्ल का बलिदान दिवस है। बैकुंठ शुक्ल को फणीन्द्र नाथ घोष की हत्या के मामले में फांसी की सजा दी गई थी, जो भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की फांसी के लिए सरकारी गवाह बन गया था। वे महान क्रांतिकारी और हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के संस्थापकों में से एक योगेंद्र शुक्ल के भतीजे थे।

बैकुंठ शुक्ल का जन्म 1907 में पुराने मुजफ्फरपुर (वर्तमान वैशाली) जिले के जलालपुर ग्राम के एक किसान परिवार में हुआ था। गांव में ही प्रारम्भिक शिक्षा पूरी करने के बाद उन्होंने पड़ोस के मथुरापुर गांव के प्राथमिक स्कूल में शिक्षक बनकर समाज को सुधारना शुरू किया। 1930 के सविनय अवज्ञा आंदोलन में सक्रिय सहयोग दिया और पटना के कैम्प जेल गए। गांधी-इर्विन समझौता के बाद रिहा हुए। जेल प्रवास के दौरान वे हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी के संपर्क में आए और क्रांतिकारी बने। 1931 में भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को लाहौर षडयंत्र कांड में सजा के एलान ने पूरे देश को हिला कर रख दिया।

फणीन्द्र नाथ घोष, जो खुद रेवोल्यूशनरी पार्टी का सदस्य था, अंग्रेजी हुकूमत के दबाव और लालच में आकर वादामाफ़ गवाह बन गया और उसकी गवाही पर तीनों वीर क्रांतिकारियों को फांसी की सजा सुनाई गई। घोष को विश्वासघात की सजा देने का बीड़ा बैकुंठ शुक्ल ने उठाया था।

बैकुंठ शुक्ल की फांसी का वह दिन

सरकारी गवाह बन गये गद्दार फणीन्द्र नाथ घोष की बेतिया के मीना बाजार में कुल्हाड़ी  से काट भगत सिंह, सुखदेव व राजगुरु की मौत का बदला लेने वाले बैकुंठ शुक्ल को फांसी देने के वक्त गया जेल का सरकारी जल्लाद भी मानो जड़ हो गया था। जेल के सुपरिंटेंडेंट मिस्टर परेरा रुमाल हिलाकर बार-बार संकेत दे रहे थे, पर उससे लीवर नहीं खींचा जा रहा था। शुक्ल ने जब चिल्लाकर कहा कि देर क्यों करते हो तो उसकी तंद्रा भंग हुई और उसने लीवर खींचा। उस दिन पूरे गारद में कोई चौकी नहीं गया, किसी ने भोजन नहीं किया, जेल का कोई मुलाजिम रोये बिना नहीं रहा। फांसी के दिन अलस्सुबह पांच बजे जब गया जेल के पंद्रह नंबर वार्ड से बैकुंठ शुक्ल फांसी स्थल की ओर जा रहे थे तो उनकी आखिरी आवाज थी – ‘अब चलता हूं।मैं फिर आऊंगा। देश तो आजाद नहीं हुआ। वंदेमातरम्…।

बैकुंठ शुक्ल की गया जेल में फांसी के दिन का विवरण प्रसिद्ध क्रांतिकारी विभूतिभूषण दासगुप्त की कालजयी बांग्ला पुस्तक ‘सेईं महावर्षार गंगा जल’ और इसके हिन्दी अनुवाद ‘सरफरोशी की तमन्ना’  पुस्तक में मिलता है। बसावन, रघुनाथ पांडेय और त्रिभुवन आजाद के साथ दासगुप्त भी तब गया जेल के पंद्रह नंबर वार्ड में बंद थे। विभूतिभूषण दासगुप्त लिखते हैं- लाहौर षड्यंत्र केस में भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी हुई थी और यतीन्द्रदास ने लाहौर जेल में ऐतिहासिक अनशन कर मृत्यु का आलिंगन किया था। क्रांतिकारी भाषा में जिसे इनरमैन (भीतरघाती) कहा जाता है, फणी घोष रिपब्लिकन पार्टी का वैसा ही इनरमैन था। लाहौर षड्यंत्र केस के अभियुक्तों को लेकर लाला लाजपत राय के हत्यारे सांडर्स को गोली मारने से लेकर दिल्ली की असेम्बली में बम फेंकने और ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध युद्ध की तैयारी करने आदि जैसे अनेक अभियोग उस पर लगाये गये थे। अन्य लोगों के साथ फणी घोष भी एक सक्रिय क्रांतिकारी था और वह कई कार्रवाइयों में भाग ले चुका था।

ऐसी संभावना थी कि उसे कठोर सजा मिलेगी, लेकिन उसने अनेक गंभीर आरोपों को स्वीकार ही नहीं कर लिया, बल्कि मुखबिर बनकर सर्वनाश कर दिया। वह गद्दार बन चुका था। बिहार के श्रीराम विनोद विद्रोही दल के विशिष्ट नेता थे। उनके बाद योगेन्द्र शुक्ल थे, जो रिपब्लिकन पार्टी के स्तंभ माने जाते थे। गया जेल के सात नंबर वार्ड के सेल में फांसी के अभियुक्तों को रखा जाता था और फांसी से एक दिन पहले अभियुक्त को पंद्रह नंबर वार्ड में रखकर सुबह फांसी पर लटका दिया जाता था।

दासगुप्त लिखते हैं कि गया जेल में रहते हुए उन्होंने 45 व्यक्तियों को फांसी के पहले वहां रात बिताते देखा था। ऐसे में ही एक दिन उन्हें पता चला कि बैकुंठ शुक्ल की फांसी का दिन तय कर लिया गया है। वह जाड़े का मौसम था, वह भी गया का जाड़ा-हड्डी कंपाने वाला। दासगुप्त के शब्दों में – एक दिन जेल के अधिकारी अचानक बसावन को वहां से ले गये। बाद में पता चला कि उसे हजारीबाग जेल भेज दिया गया है। यह सतर्कता में किया गया। पुराने सुपरिंटेंडेंट का भी तबादला हो गया था। उसके स्थान पर पटना जेल कैम्प के सुपरिंटेंडेंट परेरा को गया जेल का सुपरिंटेंडेंट बनाया गया था। समय गुजरते देर न लगी और वह निर्धारित संध्या आखिर आ पहुंची।फांसी के अन्य अभियुक्तों की भांति बैकुंठ शुक्ल से भेंट करने को हम उत्सुक थे, लेकिन हेड जमादार ने आकर कहा, आज आप लोगों को पहले ही बंद हो जाना पड़ेगा। जब आप लोग अंदर चले जायेंगे, तभी शुक्लजी को लाया जायेगा। एक बार अंतिम दर्शन को अनुरोध करने में भी घृणा महसूस हुई। जो कल मृत्यु का आलिंगन करने जा रहा है, उसे देखने को जल्लाद से अनुनय-विनय? हम अपने-अपने सेल में चले गये। उस दिन जेल के सभी कैदियों को बंद करने के बाद ही बैकुंठ शुक्ल को पंद्रह नंबर में लाया गया।अभी शाम होने में देर थी। दासगुप्त कुर्ता पहनकर कंबल ओढ़कर लोहे के सीखचों को पकड़े खड़े थे। वे लिखते हैं- जंजीर और बेडिय़ों की झंकार के साथ बैकुंठ शुक्ल पंद्रह नंबर वार्ड में आये और ऊंचे स्वर में बोले-दादा, आ गया। अगल-बगल की सेलों से हम तीनों बोल उठे-वंदे मातरम्। फिर एक नंबर के सेल से शुक्लजी की आवाज आयी-विभूति दा, एक बार खुदीराम का फांसी वाला गीत गाइए न दादा – हासि हासि परब फांसी, मां देखबे भारतवासी (हंस-हंसकर फांसी पर झूलूंगा, भारत माता देखेगी)।दासगुप्त के साथ-साथ बैकुंठ शुक्ल भी गला खोलकर गा रहे थे-दिले शुक्ल में है, दिले शुक्ल में है, दिले शुक्ल में है। कब चार बज गये, पता ही नहीं चला। बैकुंठ शुक्ल ही बोले-दादा, वक्त नजदीक आ गया है। आखिरी गाना वंदेमातरम् सुनाइए। एक नंबर, आठ नंबर, नौ नंबर, दस नंबर से एक साथ गाने गाये जाने लगे-वंदेमातरम्। लिखते हैं दासगुप्त-जेल गेट पर पांच का घंटा बजा। अभी अंधकार था। एक साथ अनेक भारी-भारी बूटों की आवाज गूंजती हुई पंद्रह नंबर में प्रवेश कर गयी। बैकुंठ शुक्ल ने पुकार कर कहा-‘दादा, अब तो चलना है। मैं एक बात कहना चाहता हूं। आप जेल से बाहर जाने के बाद बिहार में बाल विवाह की जो प्रथा आज भी प्रचलित है, उसे बंद करने का प्रयत्न अवश्य कीजिएगा। पंद्रह नंबर से बाहर निकलने के पहले बैकुंठ शुक्ल क्षण भर को रुके और दासगुप्त की सेल की ओर देखकर बोले-‘अब चलता हूं। मैं फिर आऊंगा। देश तो आजाद नहीं हुआ। वंदेमातरम्…।

शुक्लजी की आखिरी आवाज के साथ उस वक्त जेल में बंद तीनों व्यक्तियों की आवाज शामिल हो गयी। बाद में दासगुप्त को वहां के वार्डर ने बताया कि फांसी के वक्त शुक्ल परिवार के साथ बाहर के लोग भी थे। शुक्ल  की लाश उन्हें नहीं दी गयी। वार्डर ने ही बताया कि उन लोगों ने चंदा करके और कंधे पर ले जाकर शुक्ल का दाह-संस्कार किया।

‘इस कलंक को धोओगे या ढोओगे : जिस फणीन्द्र नाथ घोष की गवाही पर सांडर्स मर्डर केस में भगत सिंह, सुखदेव व राजगुरु को लाहौर सेंट्रल जेल में २३ मार्च १९३१ को फांसी दी गयी थी, उसकी मौत का फरमान पंजाब के क्रांतिकारियों ने कुछ यूं भेजा था-इस कलंक को धोओगे या ढोओगे? पंजाब से आये इस संदेश से बिहार के साथी विचलित थे। हाजीपुर सदाकत आश्रम में उनकी एक आपातकालीन बैठक हुई। इसमें मौजूद छह लोगों ने गोटी लगायी। गोटी इस बात पर कि आखिरकार फणीन्द्र नाथ घोष को खत्म कर भगत सिंह की मौत का बदला कौन लेगा। दरअसल, इस काम को करने को हर कोई उतावला हो रहा था। यहां तक कि उस बैठक में मौजूद किशोरी प्रसन्न सिंह की पत्नी सुनीति  इस बीड़े को उठाने के लिए मचल रही थीं।

अक्षयवट राय ने यह कहकर कि छह आदमियों के परिवार में सुनीति बहन अकेली महिला हैं और उनके चले जाने से परिवार ही सूना हो जायेगा, उनके प्रस्ताव का विरोध कर दिया था। वे खुद इस काम को अपने हाथ में लेना चाहते थे। अंत में गोटी लगाने पर एकराय कायम हुई। सुनीति जी ने ही पांच व्यक्तियों के बीच गोटी लगायी और गोटी से निकला बैकुंठ शुक्ल का नाम। बस क्या था? बल्लियों उछल गये बैकुंठ शुक्ल और लग गये अपने काम में। साथी बने चंद्रमा सिंह। और 9 नवंबर 1932 की शाम करीब सात बजे इस महारथी ने बेतिया के मीना बाजार में तेज और धारदार हथियार से फणीन्द्र नाथ घोष को काट डाला। तब फणीन्द्र नाथ घोष अपने मित्र गणेश प्रसाद गुप्त से बातचीत कर रहा था। गणेश ने बैकुंठ शुक्ल को पकडऩे का प्रयास किया तो उस पर भी प्रहार किये गये। फणीन्द्र नाथ घोष का प्राणांत 17 नवंबर को, जबकि गणेश प्रसाद का 20 नवंबर को हुआ।

फणीन्द्र की मौत से ब्रिटिश सरकार की नींव हिल गयी थी। जोर-शोर से हत्यारों की तलाश शुरू हुई। मौके पर दोनों क्रांतिकारियों की जो दो साइकिलें पकड़ी गयी थीं, उनके कैरियर से प्राप्त गठरी में से धोती, छूरा, सेफ्टी रेजर, आईना और टार्च बरामद हुए थे। धोती पर धोबी का नंबर लिखा था, इससे पुलिस को रास्ता मिला और वह दरभंगा मेडिकल कालेज के छात्रावास में रहने वाले बैकुंठ शुक्ल के ग्र्रामीण गोपाल नारायण शुक्ल तक पहुंच गयी। गोपाल शुक्ल ने स्वीकार कर लिया कि 4 नवंबर को बैकुंठ शुक्ल छात्रावास आये थे और बताया था कि मोतिहारी जाना है। उन्होंने ही उनसे धोती, रेजर आदि सामान लिये थे।

इस प्रकार फणीन्द्र नाथ घोष के हत्यारों के रूप में बैकुठ शुक्ल और चंद्रमा सिंह की पहचान हुई। सरकार ने बैकुंठ शुक्ल की गिरफ्तारी पर इनाम की घोषणा कर दी। बाद में चंद्रमा सिंह 5 जनवरी 1933 को कानपुर से, जबकि बैकुंठ शुक्ल 6 जुलाई 1933 को हाजीपुर पुल के सोनपुर वाले छोर से गिरफ्तार कर लिये गये। गिरफ्तारी के समय उन्होंने ‘इंकलाब जिंदाबाद’ और ‘जोगेन्द्र शुक्ल की जय’ के नारे लगाये। मुजफ्फरपुर में दोनों शूरवीरों पर फणीन्द्र नाथ घोष की हत्या का मुकदमा चला।

23 फरवरी 1934 को सत्र न्यायाधीश ने फैसला सुनाते हुए बैकुंठ शुक्ल को फांसी की सजा दे दी, जबकि चंद्रमा सिंह को दोषी नहीं पाते हुए रिहा कर दिया। बैकुंठ शुक्ल ने सत्र न्यायाधीश के फैसले के खिलाफ पटना उच्च न्यायालय में अपील की, लेकिन 18 अप्रैल 1934 को हाईकोर्ट ने सत्र न्यायाधीश के फैसले की पुष्टि कर दी। इस फैसले ने 14 मई 1934 को सरंजाम पाया और गया जेल में बैकुंठ शुक्ल को फांसी दे दी गई।

 

 

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